अर्थात् जिन-जिन साधनों से आत्मा की शुद्धि और मोक्ष का योग होता है, उन सब साधनों को योग कह सकते हैं। पातंजलि-योगदर्शन में योग का लक्षण योगश्चित्तवृत्ति-निरोधः कहा है। मन, वचन, शरीर आदि को संयत करने वाला धर्म-व्यापार ही योग है, क्योंकि यही आत्मा को उसके साध्य मोक्ष के साथ जोड़ता है।
जिस समय मनुष्य सब चिन्ताओं का परित्याग कर देता है, उस समय, उसके मन की उस लय-अवस्था को लय-योग कहते हैं। अर्थात् चित्त की सभी वृत्तियों को रोकने का नाम योग है। वासना और कामना से लिप्त चित को वृत्ति कहा है। इस वृत्ति का प्रवाह जाग्रत , स्वप्न, सुषुप्ति-इन तीनों अवस्थाओं में मनुष्य के हृदय पर प्रवाहित होता रहता है। चित्त सदा-सर्वदा ही अपनी स्वाभाविक अवस्था को पुनः प्राप्त करने के लिये प्रयत्न करता रहता है, किन्तु इन्द्रियाँ उसे बाहर आकर्षित कर लेती हैं। उसको रोकना एवं उसकी बाहर निकलने की प्रवृत्ति को निवृत करके उसे पीछे घुमाकर चिद्-घन पुरूष के पास पहुँचने के पथ में ले जाने का नाम ही योग है। हम अपने हृदयस्थ चैतन्य-घन पुरूष को क्यों नहीं देख पाते? कारण यही है कि हमारा चित्त हिंसा आदि पापों से मैला और आशादि वृत्तियों से आन्दोलित हो रहा है। यम-नियम आदि की साधना से चित्त का मैल छुड़ाकर चित्त वृत्ति को रोकने का नाम योग है।
योग के आठ अंग है। आठ अंगों वाले योग को शास्त्रों में अष्टांगयोग के नाम से जाना जाता है। साधक को उन्हीं आठ अंगों को साधना होता है। साधना का अर्थ है- अभ्यास। योग के आठ अंग इस प्रकार है-यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि। योग की साधना करना अर्थात् पूर्ण मनुष्य बनकर स्वरूप- ज्ञान प्राप्त करना हो तो योग के इन आठ अंगों की साधना यानि अभ्यास करना चाहिये।
0 comments:
Post a Comment
Click to see the code!
To insert emoticon you must added at least one space before the code.