आचार्य महाप्रज्ञ।।
बहुत पहले की बात है। आम्रपाली अपने समय की बहुत प्रसिद्ध नर्तकी थी। उसने एक बार महात्मा बुद्ध से भेंट की। थोड़ी देर बातचीत के बाद उनसे पूछा -'भंते! आप मेरे पास कभी क्यों नहीं आते।' महात्मा बुद्ध बोले-'अभी जरूरत नहीं है, जिस दिन जरूरत होगी, मैं अवश्य आऊंगा।' समय बीतता गया और धीरे धीरे वह नर्तकी बूढ़ी हो गई। देखते देखते उसकी खूबसूरती कम होती चली गई। रोज पहुंचने वाले लोग भी अब उससे बचने लगे। हालत यह हो गई कि अब उसके पास कोई मिलने ही नहीं आता था। तब एक दिन महात्मा बुद्ध वहां पहुंचे और बोले-'प्रिय! मैं आ गया।'
आम्रपाली ने कहा-'भंते! अब तो समय बीत गया। अब मुझमें बचा ही क्या है? वह शारीरिक सौंदर्य तो अब रहा नहीं। आप इतने दिनों बाद आज क्यों आए?' महात्मा बुद्ध ने कहा-'प्रिये! यही तो समय है आने का। पहले तुझे मेरी आवश्यकता भी नहीं थी। धर्म की आवश्यकता तो तुझे अब महसूस हो रही है। समझ ले, मैं उसकी पूर्ति करने आया हूं।'
पीड़ा और दुख के समय ही भगवान और धर्म को याद किया जाता है। कहा भी है कि 'दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय, जो सुख में सुमिरन करें दुख काहे को होय।' जब व्यक्ति महसूस करता है कि उसकी उपेक्षा हो रही है, सब उसको सता रहे हैं, वह बूढ़ा और शिथिल हो गया है, उसकी व्याकुलता बढ़ गई है, मन बेचैन रहने लगा है-तब उसे भगवान याद आते हैं, धर्म की बातें याद आ जाती हैं।
दूसरी बात है कि जब मन में जिज्ञासा जाग जाती है कि मैं सत्य का साक्षात्कार करूं। व्यक्ति सोचता है कि मैं यह जानूं कि आत्मा क्या है? चैतन्य क्या है? मोक्ष क्या है? उस जिज्ञासु अवस्था में व्यक्ति जिज्ञासा की उपासना कर अपने को समाहित करना चाहता है। असल में जिज्ञासा इंसान को सत्य तक पहुंचाने वाला मार्ग है। तीसरी बात है कि ज्ञानी व्यक्ति परम की उपासना करता है, ईश्वर और सत्य के प्रति समर्पित हो जाता है। ज्ञान की आराधना सत्य की आराधना है। ज्ञानी जान जाता है कि संसार में सार क्या है और निस्सार क्या है। वह जानता है कि सत्य का मार्ग कौन-सा है।
चौथी बात है कि अर्थार्थी व्यक्ति भगवान की उपासना करता है। जब व्यक्ति के मन में पदार्थ की आकांक्षा उभर आती है, वह उसकी पूर्ति के लिए भगवान की उपासना करता है, धर्म की आराधना करता है। ध्यान के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए कृत्रिम आकर्षण पैदा नहीं करना चाहिए। हमने साध्य-शुद्धि के साथ-साथ साधन शुद्धि का पाठ भी पढ़ा है। केवल साध्य की शुद्धि ही पर्याप्त नहीं। उसके साथ साधन की शुद्धि भी आवश्यक होती है। ध्यान के क्षेत्र में आने वाले साधक की निष्ठा के साथ चलते हैं। यहां केवल अध्यात्म है, कोरा अध्यात्म। कुछ भी अतिरिक्त नहीं। जो व्यक्ति अपनी पीड़ा को शांत करना चाहता है, सत्य को जानना चाहता है, क्षय को दूर करना चाहता है- वह ध्यान की ओर बढ़ता है। साधक के सामने ध्यान का इतना विशाल क्षेत्र है कि कोई उसका साथी हो या न हो, वह अनंत जनमों तक सत्य की खोज में जुटा रह सकता है।
ध्यान रूपांतरण की प्रक्रिया है। उससे आदतें बदलती हैं, स्वभाव बदलता है और पूरा व्यक्तित्व बदल जाता है। आज का विज्ञान भी इस बात का समर्थन करने लगा है कि आदमी का रूपांतरण हो सकता है। विज्ञान के अनुसार हमारे मस्तिष्क में आर. एन. ए. नाम का रसायन होता है, जो हमारी चेतना की परतों पर छाया रहता है। विज्ञान ने यह खोज निकाला है कि यह रसायन व्यक्तित्व के रूपांतरण का घटक है। इसे घटाया-बढ़ाया जा सकता है। इसके आधार पर ही रूपांतरण घटित हाता है। मनुष्य की आदतें बदलती हैं। पुरानी आदतों को छोड़ कर उसमें नई आदतें डाली जा सकती हैं।
प्रस्तुति: ललित गर्ग
Source: http://navbharattimes.indiatimes.com/astro/holy-discourse/religious-discourse/Why-reminds-God-in-suffering/astroshow/21073440.cms
बहुत पहले की बात है। आम्रपाली अपने समय की बहुत प्रसिद्ध नर्तकी थी। उसने एक बार महात्मा बुद्ध से भेंट की। थोड़ी देर बातचीत के बाद उनसे पूछा -'भंते! आप मेरे पास कभी क्यों नहीं आते।' महात्मा बुद्ध बोले-'अभी जरूरत नहीं है, जिस दिन जरूरत होगी, मैं अवश्य आऊंगा।' समय बीतता गया और धीरे धीरे वह नर्तकी बूढ़ी हो गई। देखते देखते उसकी खूबसूरती कम होती चली गई। रोज पहुंचने वाले लोग भी अब उससे बचने लगे। हालत यह हो गई कि अब उसके पास कोई मिलने ही नहीं आता था। तब एक दिन महात्मा बुद्ध वहां पहुंचे और बोले-'प्रिय! मैं आ गया।'
आम्रपाली ने कहा-'भंते! अब तो समय बीत गया। अब मुझमें बचा ही क्या है? वह शारीरिक सौंदर्य तो अब रहा नहीं। आप इतने दिनों बाद आज क्यों आए?' महात्मा बुद्ध ने कहा-'प्रिये! यही तो समय है आने का। पहले तुझे मेरी आवश्यकता भी नहीं थी। धर्म की आवश्यकता तो तुझे अब महसूस हो रही है। समझ ले, मैं उसकी पूर्ति करने आया हूं।'
पीड़ा और दुख के समय ही भगवान और धर्म को याद किया जाता है। कहा भी है कि 'दुख में सुमिरन सब करें सुख में करे न कोय, जो सुख में सुमिरन करें दुख काहे को होय।' जब व्यक्ति महसूस करता है कि उसकी उपेक्षा हो रही है, सब उसको सता रहे हैं, वह बूढ़ा और शिथिल हो गया है, उसकी व्याकुलता बढ़ गई है, मन बेचैन रहने लगा है-तब उसे भगवान याद आते हैं, धर्म की बातें याद आ जाती हैं।
दूसरी बात है कि जब मन में जिज्ञासा जाग जाती है कि मैं सत्य का साक्षात्कार करूं। व्यक्ति सोचता है कि मैं यह जानूं कि आत्मा क्या है? चैतन्य क्या है? मोक्ष क्या है? उस जिज्ञासु अवस्था में व्यक्ति जिज्ञासा की उपासना कर अपने को समाहित करना चाहता है। असल में जिज्ञासा इंसान को सत्य तक पहुंचाने वाला मार्ग है। तीसरी बात है कि ज्ञानी व्यक्ति परम की उपासना करता है, ईश्वर और सत्य के प्रति समर्पित हो जाता है। ज्ञान की आराधना सत्य की आराधना है। ज्ञानी जान जाता है कि संसार में सार क्या है और निस्सार क्या है। वह जानता है कि सत्य का मार्ग कौन-सा है।
चौथी बात है कि अर्थार्थी व्यक्ति भगवान की उपासना करता है। जब व्यक्ति के मन में पदार्थ की आकांक्षा उभर आती है, वह उसकी पूर्ति के लिए भगवान की उपासना करता है, धर्म की आराधना करता है। ध्यान के प्रति आकर्षण पैदा करने के लिए कृत्रिम आकर्षण पैदा नहीं करना चाहिए। हमने साध्य-शुद्धि के साथ-साथ साधन शुद्धि का पाठ भी पढ़ा है। केवल साध्य की शुद्धि ही पर्याप्त नहीं। उसके साथ साधन की शुद्धि भी आवश्यक होती है। ध्यान के क्षेत्र में आने वाले साधक की निष्ठा के साथ चलते हैं। यहां केवल अध्यात्म है, कोरा अध्यात्म। कुछ भी अतिरिक्त नहीं। जो व्यक्ति अपनी पीड़ा को शांत करना चाहता है, सत्य को जानना चाहता है, क्षय को दूर करना चाहता है- वह ध्यान की ओर बढ़ता है। साधक के सामने ध्यान का इतना विशाल क्षेत्र है कि कोई उसका साथी हो या न हो, वह अनंत जनमों तक सत्य की खोज में जुटा रह सकता है।
ध्यान रूपांतरण की प्रक्रिया है। उससे आदतें बदलती हैं, स्वभाव बदलता है और पूरा व्यक्तित्व बदल जाता है। आज का विज्ञान भी इस बात का समर्थन करने लगा है कि आदमी का रूपांतरण हो सकता है। विज्ञान के अनुसार हमारे मस्तिष्क में आर. एन. ए. नाम का रसायन होता है, जो हमारी चेतना की परतों पर छाया रहता है। विज्ञान ने यह खोज निकाला है कि यह रसायन व्यक्तित्व के रूपांतरण का घटक है। इसे घटाया-बढ़ाया जा सकता है। इसके आधार पर ही रूपांतरण घटित हाता है। मनुष्य की आदतें बदलती हैं। पुरानी आदतों को छोड़ कर उसमें नई आदतें डाली जा सकती हैं।
प्रस्तुति: ललित गर्ग
Source: http://navbharattimes.indiatimes.com/astro/holy-discourse/religious-discourse/Why-reminds-God-in-suffering/astroshow/21073440.cms
Siddha Yoga In Short: | |||||||||||||||||||
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