जीव, प्रकृति एवं ईश्वर ये तीनों अनादि काल से हैं। जीव ने सर्व प्रथम स्वयं को समझा, उसके पश्चात् उसने अपने पैदा करने वाले को जानने की कोशिश की। शुद्र जीव एक साधक बन गया। साधक से गुरू और गुरू से महा-गुरू बन गया और उसने प्रकृति व ईश्वर के सभी रहस्यों को जाना। सभी रहस्यों को जानकर उसने उन्हें लिपि-बद्ध किया। जब उसने रहस्यों को जाना तो पाया कि प्रकृति अर्थात् शक्ति तथा ईश्वर अर्थात् पुरुष ही मेरे को बनाने व चलाने वाले है। उसने दोनों की आराधना कि और दोनों की साधना के तमाम तरिकों को जाना। उसने पाया कि दोनों प्रकृति-पुरूष कि साधना एक साथ भी कि जा सकती है, तथा अलग-अलग भी कि जा सकती है। इस प्रकार धीरे-धीरे दोनों ही तरिकों से पूजा की जानें लगी। 51 पीठों के बनने से पूर्व शक्ति की उपासना निराकार भाव में होती थी। अनेकों ही साधकों ने शक्ति की उपासना निराकार भाव में की है। राजा दक्ष द्वारा निराकार शक्ति की पूजा करना और उनके घर में सती रुपी शक्ति का जन्म लेना। राजा हिमाचल का शक्ति की उपासना करना और उनके घर में पार्वती नामक शक्ति के रुप में जन्म लेना। मतंग मुनि का तप करना और पुत्री रुप में मातंगी नामक शक्ति का पुत्री रुप में जन्म होना। कात्यायन मुनि का जाप करना और उनके घर में भी कात्यायिनी नामक शक्ति का पुत्री रुप में जन्म लेना।
ध्यान देने वाली बात यह है कि सती, पार्वती, मातंगी और कात्यायिनी एक ही शक्ति का रुप है। किन्तु नाम भेद से अलग-अलग है। कात्यायन मुनि की पुत्री होने की वजह से वह शक्ति कात्यायिनी कहलाई, मतंग मुनि कि पुत्री होने के कारण वह मातंगी कहलाई। ये सब आदि-शक्ति का ही अंश रुप है। किसी भी शक्ति का नाम चाहें जो भी हो, उसके मूल में एक ही शक्ति समाई हुई है। जिसे आप प्रकृति, माया, आदि-शक्ति, परमेश्वरी, शिवा, चण्डी, दुर्गा जो भी चाहें नाम दे सकते है। सही मायने में वह प्रकृति ही है। प्रकृति ही तन्त्र की कुल देवी है। प्रधानतः अधिकतर महर्षियों ने इसे शिवा कहा है। शिवा का अर्थ है- सब का कल्याण करने वाली शक्ति। सम्पूर्ण प्रकृति में जो भी कीट-पतंगे से ले कर उंचे-उंचे पर्वतों तक का निर्माण हुआ है, एवं चाँद-तारे और सूर्य पैदा हुऐ हैं। वह प्रकृति ही इन सब के द्वारा हमारा कल्याण करती है। प्रकृति के मूल में भी शब्द की शक्ति छुपी हुई है। यह शब्द ही हमें परमात्मा तक पहुँचाता है और यह शब्द ही शक्ति का साक्षात्कार कराता है।
अगर आप शब्द का ब्रह्म भाव से जाप करेगें, तो आप को ब्रह्म की प्राप्ति के साथ-साथ उस परमेश्वर की सम्पूर्ण शक्ति की भी प्राप्ति होगी। अगर आवश्यकता है, तो केवल भाव और श्रद्धा की। आपका जैसा भाव और जैसी श्रद्धा होगी आपको उसी के अनुसार फल की प्राप्ति होगी। शब्द के मूल में भी आपका भाव और आपकी श्रद्धा ही काम करेगी। शब्द सर्वोपरि है। शब्द सर्व-शक्तिमान है। शब्द सर्व-व्यापक है।
किन्तु जैसे एक अच्छे बीज के लिऐ उपजाऊ भूमि का होना जरूरी है, उसी प्रकार शब्द के लिऐ मन और बुद्धि का निर्मल होना आवश्यक है। जब तक आपका मन और बुद्धि पवित्र नहीं होंगी, तब तक शब्द चाहे कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, उसकी शक्ति का चमत्कार आप को प्रत्यक्ष रूप से दिखलाई नहीं देगा। जिस प्रकार एक अच्छे बीज को धरती में बोने के लिऐ, एक योग्य किसान एवं उपजाऊ भूमि कि आवश्यकता होती है। उसी प्रकार योग्य किसान के रूप में श्रेष्ठ गुरू, बीज रूप में ॐकार रूपी श्रेष्ठ शब्द एवं उपजाऊ भूमि के रूप में योग्य शिष्य की आवश्यकता है। जब तक ये तीनों कसोटी पर खरे नहीं उतरेंगे, तब तक खेत के अन्दर एक अच्छी फसल की पैदावार नहीं हो सकती। मुस्लिम सम्प्रदाय में मोहम्मद-साहब ने कहा है, कि तुम अल्लाह का ज़िक्र दिल से करो और खूब कसरत करो। कहने का अर्थ यही है, की जिस प्रकार एक पहलवान अपने जिस्म को मजबूत बनाने के लिऐ कसरत करता है। उसी प्रकार आप भी उस परमात्मा के नाम का लगातार जाप करो। जब तक आप के जाप में एकाग्रता नहीं होगी तब तक आपको सिद्धि की प्राप्ति नहीं होगी। उस परमात्मा की बंदगी इतनी करो की लोग तुम्हें पागल समझने लग जाऐं। जिस प्रकार मंजनू, लैला का दीवाना था। उस प्रकार तुम भी उस परमात्मा के दीवाने बन जाओ। दीवानगी की हद को पार करके ही तुम उस शक्ति से साक्षात्कार कर सकोगे।
हम जो भी मंत्र या शब्द जपते है, उसका हमारे जीवन पर और वातावरण पर पूर्ण प्रभाव पड़ता है। जिस भी शब्द का जाप किया जायेगा, उस शब्द से हमारे चारों तरफ सूक्ष्म-तंरगे बनने लगती है। मंत्र जप से उत्पन्न होने वाली सूक्ष्म-तरंगे, ब्रह्माण्ड में प्रवाहित ऊर्जा प्रवाह को खीच कर लाती है। जिस प्रकार तलाब में पत्थर फैंकने पर लहरें उठती है और धीरे-धीरे तालाब के किनारे तक पहुँचती है। उसी प्रकार मंत्र जप में भी चुम्बकिय विचार तरंगे पैदा होती है। यह ब्रह्माण्ड भी एक तालाब की तरह ही है, पर इस की आकृति गोल है। इसलिऐ इसका अन्तिम किनारा वही स्थान होता है जहाँ से ये ध्वनी-तरंगे पैदा होती है। इस तरह शब्द से पैदा होने वाली ऊर्जा-तरंगे धीरे-धीरे बढ़ती चली जाती है और ब्रह्माण्ड की परिक्रमा करके, जप-कर्ता के पास शब्द भेदी बाण की तरह लौट आती हैं। जाप के द्वारा इन तरंगों का प्रभाव हमारी कुन्डलिनी शक्ति पर पड़ता है।
ज्यों-ज्यों हमारी कुन्डलिनी शक्ति पर शब्द की तरंगों का आघात होता चला जायेगा, कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होनी प्रारम्भ हो जायेगी। ज्यों-ज्यों हमारी कुन्डलिनी शक्ति जाग्रत होती चली जायेगी, वैसे-वैसे शब्द शक्ति प्रकट होती चली जायेगी। शब्द की शक्ति को आप चाहे जो भी नाम दे, यह आपकी इच्छा पर निर्भर करता है। रामकृष्ण-परमहंस ने उस शक्ति को काली कहा, वामखेपा ने उसे तारा कहा। नाम चाहे जो भी हो, मायने में तो वह उस परमेश्वर कि शक्ति ही है। अनेकों ही संत ऐसे हुऐ है जिन्होंने उस शक्ति को न मान कर सीधे ही उस ब्रह्म की सेवा की, ऐसे ब्रह्म-ज्ञानियों को जिस शक्ति की प्राप्ति होती है, उसे वह नाद-शक्ति कहते है। जहाँ, शक्ति की अलग से उपासना करने पर, वह शक्ति शब्द भेद से साकार रूप में या यों कहें की स्त्री रूप में प्रकट होती है, वहीं वह शक्ति ब्रह्म-ज्ञानियों के हृदय में नाद रूप में प्रकट होती है। कहने का तात्पर्य यही है कि जो व्यक्ति या जो साधक प्रतीकों से बँधा हुआ है, तो वहाँ पर वह शक्ति प्रतीक रूप में प्रकट होगी। लेकिन जो साधक प्रतीकों से नहीं बंधा हुआ, वहाँ पर वह शक्ति शब्द के रूप में ही प्रकट होती हैं।
हम सब को शक्ति कि उपासना अवश्य करनी चाहिये, क्योंकि जिस प्रकार बिना शक्ति के शिव, शव के समान है उसी प्रकार हम भी बिना शक्ति के शव के समान है। जिस साधक कि जैसी भावना हो, उसी के अनुसार उस शक्ति की उपासना करनी चाहिये। लेकिन यदि साधक शक्ति के रूप में अपनी कुल-देवी या फिर गुरू द्वारा दिये गये शक्ति मंत्र की साधना करता है, तो बहुत जल्द उसका शक्ति से साक्षात्कार होता है, एवं जीवन सभी सुखों से परि-पूर्ण होता है। क्योंकि माना गया है कि शक्ति अपने साधकों का ख्याल एक माँ की तरह रखती है। जैसे एक माँ अपने अबोध बच्चे का पूरा ध्यान रखती हैं, उसी प्रकार शक्ति भी अपने साधकों का पूरा ख्याल रखती हैं और साधक को कभी स्वप्न में दुःख नहीं होता। साधक को जरूरत है तो एक अबोध बच्चा बन कर उस आदि-शक्ति को पुकारने की।
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