कुण्डलिनी योग अंतर्गत शक्तिपात विधान का वर्णन अनेक ग्रंथों में मिलता है । योग वशिष्ठ, तेजबिन्दूनिषद्, योग चूड़ामणि, ज्ञान संकलिनी तंत्र, शिव पुराण, देवी भागवत, शाण्डिपनिषद, मुक्तिकोपनिषद, हठयोग संहिता, कुलार्णव तंत्र, योगनी तंत्र, घेरंड संहिता, कंठ श्रुति ध्यान बिन्दूपनिषद, रुद्र यामल तंत्र, योग कुण्डलिनी उपनिषद्, शारदा तिलक आदि ग्रंथों में इस विद्या के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला गया है ।
फिर भी वह सर्वांगपूर्ण नहीं है कि उस उल्लेख के सहारे कोई अजनबी व्यक्ति साधना करके सफलता प्राप्त कर सके । पात्रता युक्त अधिकारी साधक और अनुभवी सुयोग्य मार्ग-दर्शन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ही ग्रंथों में इस गूढ़ विद्या पर प्रायः संकेत ही किये गये हैं ।
योरोपियन तांत्रिकों में जोकव बोहम की ख्याति कुण्डलिनी साधकों के रूप में रही है । उनके जर्मन शिष्य जान जार्ज गिचेल की लिखी पुस्तक 'थियोसॉफिक प्रोक्टिका' में चक्र संस्थानों का विशद वर्णन है जिसे उन्होंने अनुसंधानों और अभ्यासों के आधार पर लिखा है । जैफरी हडस्वन ने इस संदर्भ में गहरी खोजें की हैं और आत्म विज्ञान एंव भौतिक विज्ञान के समन्वयात्मक आधार लेकर चक्रों में सन्निहित शक्ति और उसके उभार उपयोग के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है ।
कुण्डलिनी साधना को अनेक स्थानों पर षट्चक्र वेधन की साधना भी कहते हैं ।
पंचकोशी साधना या पंचाग्नि विद्या भी गायत्री की कुण्डलिनी या सावित्री साधना के ही रूप हैं । एम.ए.एक डिग्री है इसे हिन्दी अंग्रेजी, सिविक्स, इकॉनॉमिक्स किसी भी विषय से प्राप्त किया जा सकता है । उसी प्रकार आत्म-तत्व, आत्म शक्ति एक है, उसे प्राप्त करने के लिए विवेचन विश्लेषण और साधना विधान भिन्न हो सकते हैं । इसमें किसी तरह का विरोधाभास नहीं है ।
तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया । शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के १७ वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है ।
योग दर्शन समाधिपाद का ३६वाँ सूत्र है-
'विशोकाया ज्योतिष्मती'
इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है ।
इस समस्त शरीर को-सम्पूर्ण जीवन कोशों को-महाशक्ति की प्राण प्रक्रिया संम्भाले हुए हैं । उस प्रक्रिया के दो ध्रुव-दो खण्ड हैं । एक को चय प्रक्रिया (एनाबॉलिक एक्शन) कहते हैं । इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता है । शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है । इन्हें परस्पर जोड़ने वाली, परिभ्रमणिका शक्ति का नाम कुण्डलिनी है ।
सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान 'शक्ति' भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान 'शिव' देश कहा है ।
मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् ।
कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥ -वराहश्रुति
मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है । यह बात पहले कही जा चुकी है ।
मूलाधार से सहस्रार तक की, काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलाक में-ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है । यह द्युलोक-देवलोक स्वर्गलोक है आत्मज्ञान का ब्रह्मज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है । कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्म जी-कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है-उसी नाभिक (न्यूविलस) को सहस्रार कहते हैं ।
आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया यहीं सम्पन्न होती है । पतन के स्खलन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता अब उर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक तक, सूर्यलोक तक पहुँचना होता है । योगाभ्यास का परम पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है । कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है ।
फिर भी वह सर्वांगपूर्ण नहीं है कि उस उल्लेख के सहारे कोई अजनबी व्यक्ति साधना करके सफलता प्राप्त कर सके । पात्रता युक्त अधिकारी साधक और अनुभवी सुयोग्य मार्ग-दर्शन की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए ही ग्रंथों में इस गूढ़ विद्या पर प्रायः संकेत ही किये गये हैं ।
योरोपियन तांत्रिकों में जोकव बोहम की ख्याति कुण्डलिनी साधकों के रूप में रही है । उनके जर्मन शिष्य जान जार्ज गिचेल की लिखी पुस्तक 'थियोसॉफिक प्रोक्टिका' में चक्र संस्थानों का विशद वर्णन है जिसे उन्होंने अनुसंधानों और अभ्यासों के आधार पर लिखा है । जैफरी हडस्वन ने इस संदर्भ में गहरी खोजें की हैं और आत्म विज्ञान एंव भौतिक विज्ञान के समन्वयात्मक आधार लेकर चक्रों में सन्निहित शक्ति और उसके उभार उपयोग के सम्बन्ध में विस्तारपूर्वक प्रकाश डाला है ।
कुण्डलिनी साधना को अनेक स्थानों पर षट्चक्र वेधन की साधना भी कहते हैं ।
पंचकोशी साधना या पंचाग्नि विद्या भी गायत्री की कुण्डलिनी या सावित्री साधना के ही रूप हैं । एम.ए.एक डिग्री है इसे हिन्दी अंग्रेजी, सिविक्स, इकॉनॉमिक्स किसी भी विषय से प्राप्त किया जा सकता है । उसी प्रकार आत्म-तत्व, आत्म शक्ति एक है, उसे प्राप्त करने के लिए विवेचन विश्लेषण और साधना विधान भिन्न हो सकते हैं । इसमें किसी तरह का विरोधाभास नहीं है ।
तैत्तरीय आरण्यक में चक्रों को देवलोक एवं देव संस्थान कहा गया । शंकराचार्य कृत आनन्द लहरी के १७ वें श्लोक में भी ऐसा ही प्रतिपादन है ।
योग दर्शन समाधिपाद का ३६वाँ सूत्र है-
'विशोकाया ज्योतिष्मती'
इसमें शोक संतापों का हरण करने वाली ज्योति शक्ति के रूप में कुण्डलिनी शक्ति की ओर संकेत है ।
इस समस्त शरीर को-सम्पूर्ण जीवन कोशों को-महाशक्ति की प्राण प्रक्रिया संम्भाले हुए हैं । उस प्रक्रिया के दो ध्रुव-दो खण्ड हैं । एक को चय प्रक्रिया (एनाबॉलिक एक्शन) कहते हैं । इसी को दार्शनिक भाषा में शिव एवं शक्ति भी कहा जाता है । शिव क्षेत्र सहस्रार तथा शक्ति क्षेत्र मूलाधार कहा गया है । इन्हें परस्पर जोड़ने वाली, परिभ्रमणिका शक्ति का नाम कुण्डलिनी है ।
सहस्रार और मूलाधार का क्षेत्र विभाजन करते हुए मनीषियों ने मूलाधार से लेकर कण्ठ पर्यन्त का क्षेत्र एवं चक्र संस्थान 'शक्ति' भाग बताया है और कण्ठ से ऊपर का स्थान 'शिव' देश कहा है ।
मूलाद्धाराद्धि षट्चक्रं शक्तिरथानमूदीरतम् ।
कण्ठादुपरि मूर्द्धान्तं शाम्भव स्थानमुच्यते॥ -वराहश्रुति
मूलाधार से कण्ठपर्यन्त शक्ति का स्थान है । कण्ठ से ऊपर से मस्तक तक शाम्भव स्थान है । यह बात पहले कही जा चुकी है ।
मूलाधार से सहस्रार तक की, काम बीज से ब्रह्म बीज तक की यात्रा को ही महायात्रा कहते हैं । योगी इसी मार्ग को पूरा करते हुए परम लक्ष्य तक पहुँचते हैं । जीव, सत्ता, प्राण, शक्ति का निवास जननेन्द्रिय मूल में है । प्राण उसी भूमि में रहने वाले रज वीर्य से उत्पन्न होते हैं । ब्रह्म सत्ता का निवास ब्रह्मलाक में-ब्रह्मरन्ध्र में माना गया है । यह द्युलोक-देवलोक स्वर्गलोक है आत्मज्ञान का ब्रह्मज्ञान का सूर्य इसी लोक में निवास करता है । कमल पुष्प पर विराजमान ब्रह्म जी-कैलाशवासी शिव और शेषशायी विष्णु का निवास जिस मस्तिष्क मध्य केन्द्र में है-उसी नाभिक (न्यूविलस) को सहस्रार कहते हैं ।
आत्म साक्षात्कार की प्रक्रिया यहीं सम्पन्न होती है । पतन के स्खलन के गर्त में पड़ी क्षत-विक्षत आत्म सत्ता अब उर्ध्वगामी होती है तो उसका लक्ष्य इसी ब्रह्मलोक तक, सूर्यलोक तक पहुँचना होता है । योगाभ्यास का परम पुरुषार्थ इसी निमित्त किया जाता है । कुण्डलिनी जागरण का उद्देश्य यही है ।
आत्मोत्कर्ष की महायात्रा जिस मार्ग से होती है उसे मेरुदण्ड या सुषुम्ना कहते हैं । उसका एक सिरा मस्तिष्क का-दूसरा काम केन्द्र का स्पर्श करता है । कुण्डलिनी साधना की समस्त गतिविधियाँ प्रायः इसी क्षेत्र को परिष्कृत एवं सरल बनाने के लिए हैं । इड़ा पिंगला के प्राण प्रवाह इसी क्षेत्र को दुहराने के लिए नियोजित किये जाते हैं । साबुन पानी में कपड़े धोये जाते हैं । झाड़ू झाड़न से कमरे की सफाई होती है । इड़ा पिंगला के माध्यम से किये जाने वाले नाड़ी शोधन प्राणायाम मेरुदण्ड का संशोधन करने के लिए है । इन दोनों ऋणात्मक और धनात्मक शक्तियों का उपयोग सृजनात्मक उद्देश्य से भी होता है ।
इमारतें बनाने वाले कारीगर कुछ समय नींव खोद का गड्डा करते हैं, इसके बाद ही दीवार चुनने के काम में लग जाते हैं । इसी प्रकार इड़ा पिंगला संशोधन और सृजन का दुहरा काम करते हैं । जो आवश्यक है उसे विकसित करने में वे कुशल माली की भूमिका निभाते हैं । यों आरंभ में जमीन जोतने जैसा ध्वंसात्मक कार्य भी उन्हीं को करना पड़ता है पर यह उत्खनन निश्चित रूप से उन्नयन के लिए होता है ।
माली भूमि खोदने, खर-पतवार उखाड़ने, पौधे की काट-छाँट करने का काम करते समय ध्वंस में संलग्न प्रतीत होता है, पर खाद पानी देने, रखवाली करने में उसकी उदार सृजनशीलता का भी उपयोग होता है । इड़ा पिंगला के माध्यम से सुषम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है ।
मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है । ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है । हिन्दू धर्म के भूःभुवःस्वःतपःमहःसत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । लम्बी मंजिलें पूरा करने के लिए लगातार ही नहीं चला जाता । बीच-बीच में विराम भी लेने होते हैं । रेलगाड़ी गन्तव्य स्थान तक बीच के स्टेशनों पर रुकती-कोयला, पानी लेती चलती है । इन विराम स्थलों को 'चक्र ' कहा गया है ।
चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है । अभिमन्यु उसमें फँस गया था । वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था । चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं । इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं । भौतिक आकर्षणों की, भ्राँतियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है । इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है ।
रामचन्द्रजी ने बाली को मार सकने की अपने क्षमता का प्रमाण सुग्रीव को दिया था । उन्होंने सात ताड़ वृक्षों का एक बाण से वेधकर दिखाया था । इसे चक्रवेधन की उपमा दी जा सकती है । भागवत माहात्य में धुन्धकारी प्रेत के बाँस की सात गाँठें फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथा है । इसे चक्रवेधन का संकेत समझा जा सकता है ।
चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं । उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है । कुसंस्कारी संताने उत्तराधिकारी में मिली बहुमूल्य सम्पदा से दुर्व्यसन अपनानी और विनाश पथ पर तेजी से बढ़ती हैं । छोटे बच्चों को बहुमूल्य जेबर पहना देने से उनकी जान जोखिम का खतरा उत्पन्न हो जाता है ।
धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती, उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है । मोती प्राप्त करने के लिए लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं । यह अवरोध इसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों को वैभव मिल सके । मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है ।
चक्रवेधन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवेचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है । जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है । सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन, दुष्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रवेधन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक है इसकी चर्चा करते हुए शारदा तिलक ग्रंथ के टीकाकार ने 'आत्म विवेक' नामक किसी साधना ग्रंथ का उदाहरण प्रस्तुत किया है । कहा गया है कि-
गुदलिङान्तरे चक्रमाधारं तु चतुर्दलम् ।
परमः सहजस्तद्वदानन्दो वीरपूर्वकः॥
योगानन्दश्च तस्य स्यादीशानादिदले फलम् ।
स्वाधिष्ठानं लिंगमूले षट्पत्रञ्त्र् क्रमस्य तु॥
पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात् ।
प्रश्रयः क्रूरता गर्वों नाशो मूच्छर् ततः परम्॥
अवज्ञा स्यादविश्वासो जीवस्य चरतो धु्रवम् ।
नाभौ दशदलं चक्रं मणिपूरकसंज्ञकम् ।
इमारतें बनाने वाले कारीगर कुछ समय नींव खोद का गड्डा करते हैं, इसके बाद ही दीवार चुनने के काम में लग जाते हैं । इसी प्रकार इड़ा पिंगला संशोधन और सृजन का दुहरा काम करते हैं । जो आवश्यक है उसे विकसित करने में वे कुशल माली की भूमिका निभाते हैं । यों आरंभ में जमीन जोतने जैसा ध्वंसात्मक कार्य भी उन्हीं को करना पड़ता है पर यह उत्खनन निश्चित रूप से उन्नयन के लिए होता है ।
माली भूमि खोदने, खर-पतवार उखाड़ने, पौधे की काट-छाँट करने का काम करते समय ध्वंस में संलग्न प्रतीत होता है, पर खाद पानी देने, रखवाली करने में उसकी उदार सृजनशीलता का भी उपयोग होता है । इड़ा पिंगला के माध्यम से सुषम्ना क्षेत्र में काम करने वाली प्राण विद्युत का विशिष्ट संचार क्रम प्रस्तुत करके कुण्डलिनी जागरण की साधना सम्पन्न की जाती है ।
मेरुदण्ड को राजमार्ग-महामार्ग कहते हैं । इसे धरती से स्वर्ग पहुँचने का देवयान मार्ग कहा गया है । इस यात्रा के मध्य में सात लोक हैं । इस्लाम धर्म के सातवें आसमान पर खुदा का निवास माना गया है । ईसाई धर्म में भी इससे मिलती-जुलती मान्यता है । हिन्दू धर्म के भूःभुवःस्वःतपःमहःसत्यम् यह सात लोक प्रसिद्ध है । आत्मा और परमात्मा के मध्य इन्हें विराम स्थल माना गया है । लम्बी मंजिलें पूरा करने के लिए लगातार ही नहीं चला जाता । बीच-बीच में विराम भी लेने होते हैं । रेलगाड़ी गन्तव्य स्थान तक बीच के स्टेशनों पर रुकती-कोयला, पानी लेती चलती है । इन विराम स्थलों को 'चक्र ' कहा गया है ।
चक्रों की व्याख्या दो रूपों में होती है, एक अवरोध के रूप में दूसरे अनुदान के रूप में महाभारत में चक्रव्यूह की कथा है । अभिमन्यु उसमें फँस गया था । वेधन कला की समुचित जानकारी न होने से वह मारा गया था । चक्रव्यूह में सात परकोटे होते हैं । इस अलंकारिक प्रसंग को आत्मा का सात चक्रों में फँसा होना कह सकते हैं । भौतिक आकर्षणों की, भ्राँतियों की विकृतियों की चहारदीवारी के रूप में भी चक्रों की गणना होती है । इसलिए उसके वेधन का विधान बताया गया है ।
रामचन्द्रजी ने बाली को मार सकने की अपने क्षमता का प्रमाण सुग्रीव को दिया था । उन्होंने सात ताड़ वृक्षों का एक बाण से वेधकर दिखाया था । इसे चक्रवेधन की उपमा दी जा सकती है । भागवत माहात्य में धुन्धकारी प्रेत के बाँस की सात गाँठें फोड़ते हुए सातवें दिन कथा प्रभाव से देव देहधारी होने की कथा है । इसे चक्रवेधन का संकेत समझा जा सकता है ।
चक्रों को अनुदान केन्द्र इसलिए कहा जाता है कि उनके अन्तराल में दिव्य सम्पदाएँ भरी पड़ी हैं । उन्हें ईश्वर ने चक्रों की तिजोरियों में इसलिए बन्द करके छोड़ा है कि प्रौढ़ता, पात्रता की स्थिति आने पर ही उन्हें खोलने उपयोग करने का अवसर मिले कुपात्रता अयोग्यता की स्थिति में बहुमूल्य साधन मिलने पर तो अनर्थ ही होता है । कुसंस्कारी संताने उत्तराधिकारी में मिली बहुमूल्य सम्पदा से दुर्व्यसन अपनानी और विनाश पथ पर तेजी से बढ़ती हैं । छोटे बच्चों को बहुमूल्य जेबर पहना देने से उनकी जान जोखिम का खतरा उत्पन्न हो जाता है ।
धातुओं की खदानें जमीन की ऊपरी परत पर बिखरी नहीं होती, उन्हें प्राप्त करने के लिए गहरी खुदाई करनी पड़ती है । मोती प्राप्त करने के लिए लिए समुद्र में गहरे गोते लगाने पड़ते हैं । यह अवरोध इसलिए है कि साहसी एवं सुयोग्य सत्पात्रों को ही विभूतियों को वैभव मिल सके । मेरुदण्ड में अवस्थित चक्रों को ऐसी सिद्धियों का केन्द्र माना गया है जिनकी भौतिक और आत्मिक प्रगति के लिए नितान्त आवश्यकता रहती है ।
चक्रवेधन, चक्रशोधन, चक्र परिष्कार, चक्र जागरण आदि नामों से बताये गये विवेचनों एवं विधानों में कहा गया है कि इस प्रयास से अदक्षताओं एवं विकृतियों का निराकरण होता है । जो उपयुक्त है उसकी अभिवृद्धि का पथ प्रशस्त होता है । सत्प्रवृत्तियों के अभिवर्धन, दुष्प्रवृत्तियों के दमन में यह चक्रवेधन विधान कितना उपयोगी एवं सहायक है इसकी चर्चा करते हुए शारदा तिलक ग्रंथ के टीकाकार ने 'आत्म विवेक' नामक किसी साधना ग्रंथ का उदाहरण प्रस्तुत किया है । कहा गया है कि-
गुदलिङान्तरे चक्रमाधारं तु चतुर्दलम् ।
परमः सहजस्तद्वदानन्दो वीरपूर्वकः॥
योगानन्दश्च तस्य स्यादीशानादिदले फलम् ।
स्वाधिष्ठानं लिंगमूले षट्पत्रञ्त्र् क्रमस्य तु॥
पूर्वादिषु दलेष्वाहुः फलान्येतान्यनुक्रमात् ।
प्रश्रयः क्रूरता गर्वों नाशो मूच्छर् ततः परम्॥
अवज्ञा स्यादविश्वासो जीवस्य चरतो धु्रवम् ।
नाभौ दशदलं चक्रं मणिपूरकसंज्ञकम् ।
यह संस्थान ब्रह्माण्डीय चेतना के साथ सम्पर्क साधने में अग्रणी है इसलिए उसे ब्रह्मरन्ध्र या ब्रह्मलोक भी कहते हैं । रेडियो एरियल की तहर हिन्दू धर्मानुयायी इस स्थान पर शिखा रखाते और उसे सिर रूपी दुर्ग पर आत्मा सिद्धान्तों को स्वीकृत किये जाने की विजय पताका बताते हैं । आज्ञाचक्र को सहस्रार का उत्पादन केन्द्र कह सकते हैं ।
सभी चक्र सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर स्थित हैं तो भी वे समूचे नाड़ी मण्डल को प्रभावित करते हैं । स्वचालित और एच्छिक दोनों की संचार प्रणालियों पर इनका प्रभाव पड़ता है । अस्तु शरीर संस्थान के अवयवों के चक्रों द्वारा र्निदेश पहुँचाये जा सकते हैं । साधारणतया यह कार्य अचेतन मन करता है और उस पर अचेतन मस्तिष्क का कोई बस नहीं चलता है । रोकने की इच्छा करने पर भी रक्त संचार रुकता नहीं और तेज करने की इच्छा होने पर भी उसमें सफलता नहीं मिलती । अचेतन बड़ा दुराग्रही है अचेतन की बात सुनने की उसे फुर्सत नहीं । उसकी मन मर्जी ही चलती है ऐसी दशा में मनुष्य हाथ-पैर चलाने जैसे छोटे-मोटे काम ही इच्छानुसार कर पाता है ।
शरीर की अनैतिच्छक क्रिया पद्धति के सम्बन्ध में वह लाचार बना रहता है । इसी प्रकार अपनी आदत, प्रकृति रुचि, दिशा को बदलने के मन्सूबे भी एक कोने पर रखे रह जाते हैं । ढर्रा अपने क्रम से चलता रहता है । ऐसी दशा में व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाली और शरीर तथा मनः संस्थान में अभीष्ट परिवर्तन करने वाली आकांक्षा प्रायः अपूर्ण एवं निष्फल रहती है ।
चक्र संस्थान को यदि जाग्रत तथा नियंतरित किया जा सके तो आत्म जगत् पर अपना अधिकार हो जाता है । यह आत्म विजय अपने ढंग की अद्भूत सफलता है । इसका महत्व तत्त्वदर्शियों ने विश्व विजय से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया है ।
विश्व विजय कर लेने पर दूरवर्ती क्षेत्रों से समुचित लाभ उठाना सम्भव नहीं हो सकता, उसकी सम्पदा का उपभोग, उपयोग कर सकने की अपने में सामर्थ्य भी कहाँ है । किन्तु आत्म विजय के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है । उसका पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकता है । उस आधार पर बहिरंग और क्षेत्रों की सम्पदा का प्रचुर लाभ अपने आप को मिल सकता है ।
मेरुदण्ड को शरीर-शास्त्री स्पाइनल कामल कहते हैं । स्पाइनल एक्सिस एवं वर्टीब्रल कॉलम-शब्द भी उसी के लिए प्रयुक्त होते हैं । मोटे तौर पर यह ३३ अस्थि घटकों से मिलकर बनी हुई एक पोली दण्डी भर है । इन हड्डियों को पृष्ठ वंश-कशेरुका या 'वटिब्री' कहते हैं । स्थति के अनुरूप इनका पाँच भागों में विभाजन किया जा सकता है ।
(१) ग्रीवा प्रदेश-सर्वाइकल रीजन-७ अस्थि खण्ड, (२) वक्ष प्रदेश-डार्सल रीजन-१२ अस्थि खण्ड, (३) कटि प्रदेश-लम्बर रीजन-५ अस्थि खण्ड, (४) त्रिक या वस्तिगह-सेक्रल रीजन-५ अस्थि खण्ड, (५) चेचु प्रदेश-काक्सीजियल रीजन-४ अस्थि खण्ड ।
मेरुदण्ड पोला है । उससे अस्थि खण्डों के बीच में होता हुआ यह छिद्र नीचे से ऊपर तक चला गया है । इसी के भीतर सुषुम्ना नाड़ी विद्यमान है । मेरुदण्ड के उर्पयुक्त पाँच प्रदेश सुषुम्ना में अवस्थित पाँच चक्रों से सम्बन्धित हैं-(१) मूलाधार चक्र-चेचु प्रदेश (२) स्वाधिष्ठान-त्रिक प्रदेश (३) मणिपूर-कटि प्रदेश (४) बनाहत-वक्ष प्रदेश (५) विशुद्धि-ग्रीवा प्रदेश छठे आज्ञा चक्र का स्थान मेरुदण्ड में नहीं आता ।
सहस्रार का सम्बन्ध भी रीढ़ की हड्डी से सीधा नहीं है । इतने पर भी सूक्ष्म शरीर का सुषुम्ना मेरुदण्ड पाँच रीढ़ वाले और दो बिना रीढ़ वाले सभी सातों चक्रों को एही श्रृंखला में बाँधे हुए है । सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना में यह सातों चक्र जंजीर की कड़ियों की तरह परस्पर पूरी तरह सम्बन्ध हैं ।
यहाँ यह तथ्य भली-भाँति स्मरण रखा जाना चाहिए कि शरीर विज्ञान के अंतर्गत वर्णित प्लेक्सस, नाड़ी गुच्छक और चक्र एक नहीं है यद्यपि उनके साथ पारस्परिक तारतम्य जोड़ा जा सकता है । यों इन गुच्छकों की भी शरीर में विशेष स्थिति है और उनकी कायिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली प्रतिक्रिया होती रहती है ।
शरीरशास्त्र के अनुसार प्रमुख नाड़ी गुच्छकों (प्लेक्ससेज) में १३ प्रधान हैं । उनके नाम हैं (१) हिपेटिक (२) सर्वाकल (३) बाँकियल (४) काक्जीजियल (५) लम्बर (६) सेक्रल (७) कार्डियक (८) इपिगेस्टि्रक (९) इसोफैजियल (१०) फेरेन्जियल (११) पलमोनरी (१२) लिंगुअल (१३) प्रोस्टटिक ।
इन गुच्छकों में शरीर यात्रा में उपयोगी भूमिका सम्पन्न करते रहने के अतिरिक्त कुछ विलक्षण विशेषतायें भी पाई जाती हैं । उनसे यह प्रतीत होता है कि उनके साथ कुछ रहस्यमय तथ्य भी जुड़े हुए हैं । यह सूक्ष्म शरीर के दिव्य चक्रों के सान्निध्य से उत्पन्न होने वाला प्रभाव ही कहा गया जा सकता है ।
'चक्र' शक्ति संचरण के एक व्यवस्थित, सुनिश्चित क्रम को कहते हैं । वैज्ञानिक क्षेत्र में विद्युत, ध्वनि, प्रकाश सभी रूपों में शक्ति के संचार क्रम की व्याख्या चक्रों (साइकिल्स) के माध्यम से ही की जाती है । इन सभी रूपों में शक्ति का संचार, तरंगों के माध्यम से होता है । एक पूरी तरंग बनने के क्रम को एक चक्र (साइकिल) कहते हैं । एक के बाद एक तरंग, एक के बाद एक चक्र (साइकिल) बनने का क्रम चलता रहता है और शक्ति का संचरण होता रहता है ।
शक्ति की प्रकृति (नेचर) का निर्धारण इन्हीं चक्रों के क्रम के आधार पर किया जाता है । औद्यौगिक क्षेत्र में प्रयुक्त विद्युत के लिए अंतराष्ट्रीय नियम है कि वह ५० साइकिल्स प्रति सेकेन्ड के चक्र क्रम की होनी चाहिए । विद्युत की मोटरों एवं अन्य यंत्रों को उसी प्रकृति की बिजली के अनुरूप बनाया जाता है । इसीलिए उन पर हार्सपावर, वोल्टेज आदि के साथ ५० साइकिल्स भी लिखा रहता है । अस्तु शक्ति संचरण के साथ 'चक्र' प्रक्रिया जुड़ी ही रहती है । वह चाहे स्थूल विद्युत शक्ति हो अथवा सूक्ष्म जैवीय विद्युत शक्ति ।
सभी चक्र सुषुम्ना नाड़ी के अन्दर स्थित हैं तो भी वे समूचे नाड़ी मण्डल को प्रभावित करते हैं । स्वचालित और एच्छिक दोनों की संचार प्रणालियों पर इनका प्रभाव पड़ता है । अस्तु शरीर संस्थान के अवयवों के चक्रों द्वारा र्निदेश पहुँचाये जा सकते हैं । साधारणतया यह कार्य अचेतन मन करता है और उस पर अचेतन मस्तिष्क का कोई बस नहीं चलता है । रोकने की इच्छा करने पर भी रक्त संचार रुकता नहीं और तेज करने की इच्छा होने पर भी उसमें सफलता नहीं मिलती । अचेतन बड़ा दुराग्रही है अचेतन की बात सुनने की उसे फुर्सत नहीं । उसकी मन मर्जी ही चलती है ऐसी दशा में मनुष्य हाथ-पैर चलाने जैसे छोटे-मोटे काम ही इच्छानुसार कर पाता है ।
शरीर की अनैतिच्छक क्रिया पद्धति के सम्बन्ध में वह लाचार बना रहता है । इसी प्रकार अपनी आदत, प्रकृति रुचि, दिशा को बदलने के मन्सूबे भी एक कोने पर रखे रह जाते हैं । ढर्रा अपने क्रम से चलता रहता है । ऐसी दशा में व्यक्तित्व को परिष्कृत करने वाली और शरीर तथा मनः संस्थान में अभीष्ट परिवर्तन करने वाली आकांक्षा प्रायः अपूर्ण एवं निष्फल रहती है ।
चक्र संस्थान को यदि जाग्रत तथा नियंतरित किया जा सके तो आत्म जगत् पर अपना अधिकार हो जाता है । यह आत्म विजय अपने ढंग की अद्भूत सफलता है । इसका महत्व तत्त्वदर्शियों ने विश्व विजय से भी अधिक महत्वपूर्ण बताया है ।
विश्व विजय कर लेने पर दूरवर्ती क्षेत्रों से समुचित लाभ उठाना सम्भव नहीं हो सकता, उसकी सम्पदा का उपभोग, उपयोग कर सकने की अपने में सामर्थ्य भी कहाँ है । किन्तु आत्म विजय के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है । उसका पूरा-पूरा लाभ उठाया जा सकता है । उस आधार पर बहिरंग और क्षेत्रों की सम्पदा का प्रचुर लाभ अपने आप को मिल सकता है ।
मेरुदण्ड को शरीर-शास्त्री स्पाइनल कामल कहते हैं । स्पाइनल एक्सिस एवं वर्टीब्रल कॉलम-शब्द भी उसी के लिए प्रयुक्त होते हैं । मोटे तौर पर यह ३३ अस्थि घटकों से मिलकर बनी हुई एक पोली दण्डी भर है । इन हड्डियों को पृष्ठ वंश-कशेरुका या 'वटिब्री' कहते हैं । स्थति के अनुरूप इनका पाँच भागों में विभाजन किया जा सकता है ।
(१) ग्रीवा प्रदेश-सर्वाइकल रीजन-७ अस्थि खण्ड, (२) वक्ष प्रदेश-डार्सल रीजन-१२ अस्थि खण्ड, (३) कटि प्रदेश-लम्बर रीजन-५ अस्थि खण्ड, (४) त्रिक या वस्तिगह-सेक्रल रीजन-५ अस्थि खण्ड, (५) चेचु प्रदेश-काक्सीजियल रीजन-४ अस्थि खण्ड ।
मेरुदण्ड पोला है । उससे अस्थि खण्डों के बीच में होता हुआ यह छिद्र नीचे से ऊपर तक चला गया है । इसी के भीतर सुषुम्ना नाड़ी विद्यमान है । मेरुदण्ड के उर्पयुक्त पाँच प्रदेश सुषुम्ना में अवस्थित पाँच चक्रों से सम्बन्धित हैं-(१) मूलाधार चक्र-चेचु प्रदेश (२) स्वाधिष्ठान-त्रिक प्रदेश (३) मणिपूर-कटि प्रदेश (४) बनाहत-वक्ष प्रदेश (५) विशुद्धि-ग्रीवा प्रदेश छठे आज्ञा चक्र का स्थान मेरुदण्ड में नहीं आता ।
सहस्रार का सम्बन्ध भी रीढ़ की हड्डी से सीधा नहीं है । इतने पर भी सूक्ष्म शरीर का सुषुम्ना मेरुदण्ड पाँच रीढ़ वाले और दो बिना रीढ़ वाले सभी सातों चक्रों को एही श्रृंखला में बाँधे हुए है । सूक्ष्म शरीर की सुषुम्ना में यह सातों चक्र जंजीर की कड़ियों की तरह परस्पर पूरी तरह सम्बन्ध हैं ।
यहाँ यह तथ्य भली-भाँति स्मरण रखा जाना चाहिए कि शरीर विज्ञान के अंतर्गत वर्णित प्लेक्सस, नाड़ी गुच्छक और चक्र एक नहीं है यद्यपि उनके साथ पारस्परिक तारतम्य जोड़ा जा सकता है । यों इन गुच्छकों की भी शरीर में विशेष स्थिति है और उनकी कायिक और मानसिक स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाली प्रतिक्रिया होती रहती है ।
शरीरशास्त्र के अनुसार प्रमुख नाड़ी गुच्छकों (प्लेक्ससेज) में १३ प्रधान हैं । उनके नाम हैं (१) हिपेटिक (२) सर्वाकल (३) बाँकियल (४) काक्जीजियल (५) लम्बर (६) सेक्रल (७) कार्डियक (८) इपिगेस्टि्रक (९) इसोफैजियल (१०) फेरेन्जियल (११) पलमोनरी (१२) लिंगुअल (१३) प्रोस्टटिक ।
इन गुच्छकों में शरीर यात्रा में उपयोगी भूमिका सम्पन्न करते रहने के अतिरिक्त कुछ विलक्षण विशेषतायें भी पाई जाती हैं । उनसे यह प्रतीत होता है कि उनके साथ कुछ रहस्यमय तथ्य भी जुड़े हुए हैं । यह सूक्ष्म शरीर के दिव्य चक्रों के सान्निध्य से उत्पन्न होने वाला प्रभाव ही कहा गया जा सकता है ।
'चक्र' शक्ति संचरण के एक व्यवस्थित, सुनिश्चित क्रम को कहते हैं । वैज्ञानिक क्षेत्र में विद्युत, ध्वनि, प्रकाश सभी रूपों में शक्ति के संचार क्रम की व्याख्या चक्रों (साइकिल्स) के माध्यम से ही की जाती है । इन सभी रूपों में शक्ति का संचार, तरंगों के माध्यम से होता है । एक पूरी तरंग बनने के क्रम को एक चक्र (साइकिल) कहते हैं । एक के बाद एक तरंग, एक के बाद एक चक्र (साइकिल) बनने का क्रम चलता रहता है और शक्ति का संचरण होता रहता है ।
शक्ति की प्रकृति (नेचर) का निर्धारण इन्हीं चक्रों के क्रम के आधार पर किया जाता है । औद्यौगिक क्षेत्र में प्रयुक्त विद्युत के लिए अंतराष्ट्रीय नियम है कि वह ५० साइकिल्स प्रति सेकेन्ड के चक्र क्रम की होनी चाहिए । विद्युत की मोटरों एवं अन्य यंत्रों को उसी प्रकृति की बिजली के अनुरूप बनाया जाता है । इसीलिए उन पर हार्सपावर, वोल्टेज आदि के साथ ५० साइकिल्स भी लिखा रहता है । अस्तु शक्ति संचरण के साथ 'चक्र' प्रक्रिया जुड़ी ही रहती है । वह चाहे स्थूल विद्युत शक्ति हो अथवा सूक्ष्म जैवीय विद्युत शक्ति ।
नदी प्रवाह में कभी-कभी कहीं भँवर पड़ जाते हैं । उनकी शक्ति अद्भूत खो बैठती है । उनमें फँसकर नौकाएँ अपना संतुलन खो बैठती हैं और एक ही झटके में उल्टी डूबती दृष्टिगोचर होती हैं । सामान्य नही प्रवाह की तुलना में इन भँवरों की प्रचण्डता सैकड़ों गुनी अधिक होती है । शरीरगत विद्युत प्रवाह को एक बहती हुई नदी के सदृश माना जा सकता है और उसमें जहाँ-तहाँ पाये जाने वाले चक्रों की 'भँवरों' से तुलना की जा सकती है ।
गर्मी की ऋतु में जब वायुमण्डल गरम हो जाता है तो जहाँ-जहाँ-बड़े 'चक्रवात'-साइक्लोन उठने लगते हैं । वे नदी के भँवरों की तरह ही गरम हवा के कारण आकाश में उड़ते हैं । उनकी शक्ति देखते ही बनती है । पेड़ों को, छत्तो को छप्परों को उखाड़ते-उछालते वे बवन्डर की तरह जिधर-तिधर भूत-बेताल की तरह नाचते-फिरते हैं । साधारण पवन प्रवाह की तुलना में इन टारनेडो (चक्रवातों) की शक्ति भी सैकड़ों गुनी अधिक होती है ।
शरीरगत विद्युत शक्ति का सामान्य प्रवाह यों संतुलित ही रहता है पर कहीं-कहीं-कहीं उसमें उग्रता एवं वक्रता भी देखी जाती है । हवा कभी-कभी बाँस आदि के झुरमटों से टकरा कर कई तरह की विचित्र आवाजें उत्पन्न करती है । रेलगाड़ी, मोटर और द्रुतगामी वाहनों के पीछे दौड़ने वाली हवा को भी अन्धड़ की चाल चलते देखा जा सकता है ।
नदी का जल कई जगह ऊपर से नीचे गिरता है-चट्टानों से टकराता है तो वहाँ प्रवाह में व्यक्तिगत उछाल, गर्जन-तर्जन की भयंकरता दृष्टिगोचर होती है । शरीरगत सूक्ष्म चक्रों की विशेष स्थिति भी इसी प्रकार की है । यों नाड़ी गुच्छकों-प्लेक्सस में भी विद्युत संचार और रक्त प्रवाह के गति क्रम में कुछ विशेषता पाई जाती है ।
किन्तु सूक्ष्म शरीर में तो वह व्यक्तिगत कहीं अधिक उग्र दिखाई पड़ता है । पतन प्रवाह पर नियंत्रण करने के लिए नावों पर पतवार बाँधे जाते हैं, उनके सहारे नाव की दिशा और गति में अभीष्ट फेर कर लिया जाता है । पनचक्की के पंखों को गति देकर आटा पीसने, जलकल चलाने आदि काम लिये जाते हैं । जलप्रपात जहाँ ऊपर से नीचे गिरता है वहाँ उस प्रपात तीव्रता के वेग को बिजली बनाने जैसे कार्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है । समुद्री ज्वार भाटों से भी बिजली बनाने का काम लिया जा रहा है ।
ठीक इसी प्रकार शरीर के विद्युत प्रवाह में जहाँ चक्र बनते हैं वहाँ उत्पन्न उग्रता को कितने ही अध्यात्म प्रयोजनों में काम लाया जाता है ।
चक्र कितने हैं? इनकी संख्या निर्धारण करने में मनीषियों का मतभेद स्पष्ट है । विलय तंत्र में इड़ा और पिंगला की विद्युत गति से उत्पन्न उलझन गुच्छकों को चक्रों की संज्ञा दी गई है और उनकी संख्या पाँच बताई गई है । मेरुदण्ड में वे पाँच की संख्या में हैं । मस्तिष्क अग्र भाग में अवस्थित आज्ञाचक्र को भी उनमें सम्मिलित कर लेने पर वे छः की संख्या पूरी हो जाती है ।
सातवाँ सहस्रार है । इसे चक्रों की बिरादरी में जोड़ने न जोड़ने पर विवाद है । सहस्रार आभि है । उसे इसी बिरादरी में सम्मिलित रखने न रखने के दोनों ही पक्षों के साथ तर्क हैं । इसलिए जहाँ छः की गणना है वहाँ सात का भी उल्लेख बहुत स्थानों पर हुआ है ।
बात इतने पर ही समाप्त नहीं हो जाती । चक्रों की संख्या सूक्ष्म शरीर में बहुत बड़ी है । इन्हें १०८ तक गिना गया है । छोटे होने के कारण उन्हं उपत्यिका कहा गया है और जपने की माला में उतने ही दाने रखे जाने की परम्परा चली है । इनमें से कितने ही लघु चक्र ऐसे हैं । जिन्हें जाग्रत करने वालों ने प्रख्यात चक्रों से भी अधिक शक्तिशाली पाया है । चन्द्रमा की गणना ग्रहों में नही उपग्रहों में होती है । फिर भी अपनी पृथ्वी के लिए समझे जाने वाले ग्रहों में कम नहीं अधिक ही उपयोगिता है ।
तंत्र ग्रन्थों में ऐसे चक्रों का वर्णन है जिनके नाम और स्थान षट्चक्रों से भिन्न हैं । जहाँ उनकी संख्या पाँच बताई गई हैं वहाँ पाँच कोशों का नहीं वरन् भिन्न आकृति-प्रकृति के अतिरिक्त चक्रों का वर्णन है । (१) त्रिकुट (२) श्रीहाट (३) औट पीठ (५) भ्रमर गुफा इनके नाम हैं । इनकी व्याख्या पाँच प्राण एवं पाँच तत्वों की विशिष्ट शक्तियों के रूप में की गई है । इनके स्थान एवं स्वरूप हठयोग में वर्णित षट्चक्रों से भिन्न हैं ।
इसी तरह कहीं-कहीं तंत्र गंथों में उनकी संख्या छः से अधिक कही गई है-
नवचक्रं कलाधारं त्रिलक्ष्यं व्योम पंचकम् ।
सम्यगेतन्न जानति स योगी नाम धारकः॥ -सिद्ध सिद्धान्त पद्धाति,
नवचक्र, त्रिलक्षं, सोलह आधार, पाँच आकाश वाले सूक्ष्म शरीर का जो जानता है उसी को योग को योग में सिद्धि मिलती है ।
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या ।
तस्यां हिरण्मयः कोशःस्वर्गो ज्योतिषावृतः॥ -अथर्ववेद
आठ चक्र, नव द्वार वाली यह अवोह या नगरी, स्वर्ण कोश और स्वर्गीय ज्योति से आवृत्त है ।
शक्ति सम्मोहन तंत्र में उनकी संख्या ९ मानी गई है । कुण्डलिनी को 'नव चक्रात्मिका देवी' कहा गया है । नौ चक्र इस प्रकार गिनाये गये हैं-(१) आनन्द चक्र (२) सिद्धि चक्र (३) आरोग्य चक्र (४) रक्षा चक्र (५) सर्वार्थ चक्र (६) सौभाग्य चक्र (७) संशोक्षण चक्र (८) शाप चक्र (९) मोहन चक्र । यह नामकरण उनकी विशेषताओं के आधार पर किया गया है । यह कहाँ है, इसकी चर्चा में मात्र तीन को षट्चक्रों की तरह बताया गया है और शेष अन्यान्य स्थानों पर अवस्थित बताये गये हैं ।
गर्मी की ऋतु में जब वायुमण्डल गरम हो जाता है तो जहाँ-जहाँ-बड़े 'चक्रवात'-साइक्लोन उठने लगते हैं । वे नदी के भँवरों की तरह ही गरम हवा के कारण आकाश में उड़ते हैं । उनकी शक्ति देखते ही बनती है । पेड़ों को, छत्तो को छप्परों को उखाड़ते-उछालते वे बवन्डर की तरह जिधर-तिधर भूत-बेताल की तरह नाचते-फिरते हैं । साधारण पवन प्रवाह की तुलना में इन टारनेडो (चक्रवातों) की शक्ति भी सैकड़ों गुनी अधिक होती है ।
शरीरगत विद्युत शक्ति का सामान्य प्रवाह यों संतुलित ही रहता है पर कहीं-कहीं-कहीं उसमें उग्रता एवं वक्रता भी देखी जाती है । हवा कभी-कभी बाँस आदि के झुरमटों से टकरा कर कई तरह की विचित्र आवाजें उत्पन्न करती है । रेलगाड़ी, मोटर और द्रुतगामी वाहनों के पीछे दौड़ने वाली हवा को भी अन्धड़ की चाल चलते देखा जा सकता है ।
नदी का जल कई जगह ऊपर से नीचे गिरता है-चट्टानों से टकराता है तो वहाँ प्रवाह में व्यक्तिगत उछाल, गर्जन-तर्जन की भयंकरता दृष्टिगोचर होती है । शरीरगत सूक्ष्म चक्रों की विशेष स्थिति भी इसी प्रकार की है । यों नाड़ी गुच्छकों-प्लेक्सस में भी विद्युत संचार और रक्त प्रवाह के गति क्रम में कुछ विशेषता पाई जाती है ।
किन्तु सूक्ष्म शरीर में तो वह व्यक्तिगत कहीं अधिक उग्र दिखाई पड़ता है । पतन प्रवाह पर नियंत्रण करने के लिए नावों पर पतवार बाँधे जाते हैं, उनके सहारे नाव की दिशा और गति में अभीष्ट फेर कर लिया जाता है । पनचक्की के पंखों को गति देकर आटा पीसने, जलकल चलाने आदि काम लिये जाते हैं । जलप्रपात जहाँ ऊपर से नीचे गिरता है वहाँ उस प्रपात तीव्रता के वेग को बिजली बनाने जैसे कार्यों के लिए प्रयुक्त किया जाता है । समुद्री ज्वार भाटों से भी बिजली बनाने का काम लिया जा रहा है ।
ठीक इसी प्रकार शरीर के विद्युत प्रवाह में जहाँ चक्र बनते हैं वहाँ उत्पन्न उग्रता को कितने ही अध्यात्म प्रयोजनों में काम लाया जाता है ।
चक्र कितने हैं? इनकी संख्या निर्धारण करने में मनीषियों का मतभेद स्पष्ट है । विलय तंत्र में इड़ा और पिंगला की विद्युत गति से उत्पन्न उलझन गुच्छकों को चक्रों की संज्ञा दी गई है और उनकी संख्या पाँच बताई गई है । मेरुदण्ड में वे पाँच की संख्या में हैं । मस्तिष्क अग्र भाग में अवस्थित आज्ञाचक्र को भी उनमें सम्मिलित कर लेने पर वे छः की संख्या पूरी हो जाती है ।
सातवाँ सहस्रार है । इसे चक्रों की बिरादरी में जोड़ने न जोड़ने पर विवाद है । सहस्रार आभि है । उसे इसी बिरादरी में सम्मिलित रखने न रखने के दोनों ही पक्षों के साथ तर्क हैं । इसलिए जहाँ छः की गणना है वहाँ सात का भी उल्लेख बहुत स्थानों पर हुआ है ।
बात इतने पर ही समाप्त नहीं हो जाती । चक्रों की संख्या सूक्ष्म शरीर में बहुत बड़ी है । इन्हें १०८ तक गिना गया है । छोटे होने के कारण उन्हं उपत्यिका कहा गया है और जपने की माला में उतने ही दाने रखे जाने की परम्परा चली है । इनमें से कितने ही लघु चक्र ऐसे हैं । जिन्हें जाग्रत करने वालों ने प्रख्यात चक्रों से भी अधिक शक्तिशाली पाया है । चन्द्रमा की गणना ग्रहों में नही उपग्रहों में होती है । फिर भी अपनी पृथ्वी के लिए समझे जाने वाले ग्रहों में कम नहीं अधिक ही उपयोगिता है ।
तंत्र ग्रन्थों में ऐसे चक्रों का वर्णन है जिनके नाम और स्थान षट्चक्रों से भिन्न हैं । जहाँ उनकी संख्या पाँच बताई गई हैं वहाँ पाँच कोशों का नहीं वरन् भिन्न आकृति-प्रकृति के अतिरिक्त चक्रों का वर्णन है । (१) त्रिकुट (२) श्रीहाट (३) औट पीठ (५) भ्रमर गुफा इनके नाम हैं । इनकी व्याख्या पाँच प्राण एवं पाँच तत्वों की विशिष्ट शक्तियों के रूप में की गई है । इनके स्थान एवं स्वरूप हठयोग में वर्णित षट्चक्रों से भिन्न हैं ।
इसी तरह कहीं-कहीं तंत्र गंथों में उनकी संख्या छः से अधिक कही गई है-
नवचक्रं कलाधारं त्रिलक्ष्यं व्योम पंचकम् ।
सम्यगेतन्न जानति स योगी नाम धारकः॥ -सिद्ध सिद्धान्त पद्धाति,
नवचक्र, त्रिलक्षं, सोलह आधार, पाँच आकाश वाले सूक्ष्म शरीर का जो जानता है उसी को योग को योग में सिद्धि मिलती है ।
अष्टाचक्रा नवद्वारा देवानां पूरयोध्या ।
तस्यां हिरण्मयः कोशःस्वर्गो ज्योतिषावृतः॥ -अथर्ववेद
आठ चक्र, नव द्वार वाली यह अवोह या नगरी, स्वर्ण कोश और स्वर्गीय ज्योति से आवृत्त है ।
शक्ति सम्मोहन तंत्र में उनकी संख्या ९ मानी गई है । कुण्डलिनी को 'नव चक्रात्मिका देवी' कहा गया है । नौ चक्र इस प्रकार गिनाये गये हैं-(१) आनन्द चक्र (२) सिद्धि चक्र (३) आरोग्य चक्र (४) रक्षा चक्र (५) सर्वार्थ चक्र (६) सौभाग्य चक्र (७) संशोक्षण चक्र (८) शाप चक्र (९) मोहन चक्र । यह नामकरण उनकी विशेषताओं के आधार पर किया गया है । यह कहाँ है, इसकी चर्चा में मात्र तीन को षट्चक्रों की तरह बताया गया है और शेष अन्यान्य स्थानों पर अवस्थित बताये गये हैं ।
नौ के वर्णन में भी नाम और स्थानों की भिन्नता मिलती है । एक स्थान पर उनके नाम इस प्रकार गिनाये गये हैं-(१) ब्रह्म चक्र (२) स्वाधिष्ठान चक्र (३) नाभि चक्र (४) हृदय चक्र (५) कण्ठ चक्र (६) तालु चक्र (७) भूचक्र (८) निर्वाण चक्र (९) आकाश चक्र बताये गये हैं । यह उल्लेख सिद्ध सिद्धान्त पद्धाति में विस्तारपूर्वक मिलता है ।
संख्या जो भी मानी जाये उन सब का एक समन्वय शक्ति पुंज लोगोज (logos) भी है जिसकी स्थूल सूर्य के समान ही किन्तु अपने अलग ढंग की रश्मियाँ निकलती हैं । सूर्य किरणों में सात रंग अथवा ऐसी विशेषतायें होती हैं जिनका स्वरूप, विस्तार और कार्यक्षेत्र सीमित है । पर इस आत्मतत्त्व के सूर्य का प्रभाव और विस्तार बहुत व्यापक है । वह प्रकृति के प्रत्येक अणु को नियंत्रित एवं गतिशील रखता है साथ ही चेतन संसार की विधि व्यवस्था को सँभालता सँजोता है । इसे पाश्चात्य तत्व वेत्ता सन्स आफ फोतह (Sons of Fotah ) कहते हैं कि विश्वव्यापी शक्तियों का मानवीकरण इसी केन्द्र संस्थान द्वारा हो सका है ।
सामान्य शक्ति धाराओं में प्रधान गिनी जाने वाली (१) गति (२) शब्द (३) ऊष्मा (४) प्रकाश (५) (Electric Fluid) संयोग (६) विद्युत (७) चुम्बक यह सात हैं । इन्हें सात चक्रों का प्रतीक ही मानना चाहिए ।
कुण्डलिनी शक्ति को कई विज्ञानवेत्ता विद्युत द्रव्य पदार्थ (श्वद्यद्गष्ह्लह्म्द्बष् स्नद्यह्वद्बस्र) या नाड़ी शक्ति कहते हैं ।
इस निखिल विश्व ब्रह्मण्ड में संव्याप्त परमात्मा की छःचेतन शक्तियों का अनुभव हमें होता है । यों शक्ति पुञ्ज परब्रह्म की अगणित शक्ति धाराओं को पता सकना मनुष्य की सीमित बुद्धि के लिए असम्भव है । फिर भी हमारे दैनिक जीवन में जिनका प्रत्यक्ष संम्पर्क संयोग रहता है उनमें प्रमुख यह हैं- (१) परा शक्ति (२) ज्ञान शक्ति (३) इच्छा शक्ति (४) क्रिया शक्ति (५) कुण्डलिनी शक्ति (६) मातृका शक्ति (७) गुहृ शक्ति ।
इन सबकी सम्मिलित शक्ति पुञ्ज ईश्वरीय प्रकाश सूक्ष्म प्रकाश (Astral Light) कह सकते हैं । यह सातवीं शक्ति है कोई चाहे तो इस शक्ति पुञ्ज को उर्पयुक्त छःशक्तियों का उद्गम भी कह सकता है । इन सबको हम चैतन्य सत्ताएँ कह सकते हैं । उसे पवित्र अग्नि (Sacred Fire) के रूप में भी कई जगह वर्णित किया गया है और कहा गया है उसमें से आग ऊष्मा तो नहीं पर प्रकाश किरणें निकलती हैं और वे शरीर में विद्यमान ग्रंथियों ग्लैण्ड्स, केन्द्रों (Centres) और गुच्छकों को आसाधारण रूप से प्रभावित करती हैं । इससे मात्र शरीर या मस्तिष्क को ही बल नहीं मिलता वरन् समग्र व्यक्तित्व की महान सम्भावना को और अग्रसर करती हैं ।
इन सात चक्रों में अवस्थित सात उर्पयुक्त शक्तियों का उल्लेख साधना ग्रंथों में अलंकारिक रूप में हुआ है । उन्हें सात लोक, सात समुद्र, सात द्वीप, सात पर्वत, सात ऋषि आदि नामों से चित्रित किया गया है ।
इस चित्रण में यह संकेत है कि इन चक्रों में किन-किन स्तर के विराट् शक्ति स्रोतों के साथ सम्बन्ध है । बीज रूप में कौन महान सामर्थ्य इन चक्रों में विद्यमान है और जाग्रत होने पर उन चक्र संस्थानों माध्यम से मनुष्य का व्यक्तित्व छोटे से कितना विराट और विशाल हो सकता है । टोकरी भर बीज से लम्बा-चौड़ा खेत हरा-भरा हो सकता है । अपने बीज भण्डार में सात टोकरी भरा-सात किस्म का अनाज सुरक्षित रखा है ।
चक्र एक प्रकार के शीत गोदाम-कोल्डस्टोर है और इन ताला जड़ा हुआ है । इन सात तालों की एक ही ताली है उसका नाम है 'कुण्डलिनी' । जब उसके जागरण की जाती है । शरीर रूपी साढ़े तीन एकड़ के खेत में वह बोया जाता है । यह छोटा खेत अपनी सुसम्पन्नता को अत्यधिक व्यापक बना देता है ।
पुराण कथा के अनुसार राजा बलि का राज्य तीनों लोकों में था । भगवान् ने वामन रूप में उससे साढ़े तीन कदम भूमि की भीक्षा माँगी । बलि तैयार हो गये । तीन कदम में तीन लोक और आधे कदम में बलि का शरीर नाप कर विराट् ब्रह्म ने उस सबको अपना लिया ।
हमारा शरीर साढ़े तीन हाथ लम्बा है । चक्रों के जागरण में यदि उसे लघु से महान्-अण्ड से विभु कर लिया जाय तो उसकी साढ़े तीन हाथ की लम्बाई-साढ़े तीन एकड़ जमीन न रहकर लोक-लोकान्तरों तक विस्तृत हो सकती है और उस उपलब्धि की याचना करने के लिए भगवान् वामन रूप धारण करके हमारे दरवाजे पर हाथ पसारे हुए उपस्थित हो सकते हैं ।
Source: (सावित्री कुण्डलिनी एवं तन्त्र : पृ-6.24)
संख्या जो भी मानी जाये उन सब का एक समन्वय शक्ति पुंज लोगोज (logos) भी है जिसकी स्थूल सूर्य के समान ही किन्तु अपने अलग ढंग की रश्मियाँ निकलती हैं । सूर्य किरणों में सात रंग अथवा ऐसी विशेषतायें होती हैं जिनका स्वरूप, विस्तार और कार्यक्षेत्र सीमित है । पर इस आत्मतत्त्व के सूर्य का प्रभाव और विस्तार बहुत व्यापक है । वह प्रकृति के प्रत्येक अणु को नियंत्रित एवं गतिशील रखता है साथ ही चेतन संसार की विधि व्यवस्था को सँभालता सँजोता है । इसे पाश्चात्य तत्व वेत्ता सन्स आफ फोतह (Sons of Fotah ) कहते हैं कि विश्वव्यापी शक्तियों का मानवीकरण इसी केन्द्र संस्थान द्वारा हो सका है ।
सामान्य शक्ति धाराओं में प्रधान गिनी जाने वाली (१) गति (२) शब्द (३) ऊष्मा (४) प्रकाश (५) (Electric Fluid) संयोग (६) विद्युत (७) चुम्बक यह सात हैं । इन्हें सात चक्रों का प्रतीक ही मानना चाहिए ।
कुण्डलिनी शक्ति को कई विज्ञानवेत्ता विद्युत द्रव्य पदार्थ (श्वद्यद्गष्ह्लह्म्द्बष् स्नद्यह्वद्बस्र) या नाड़ी शक्ति कहते हैं ।
इस निखिल विश्व ब्रह्मण्ड में संव्याप्त परमात्मा की छःचेतन शक्तियों का अनुभव हमें होता है । यों शक्ति पुञ्ज परब्रह्म की अगणित शक्ति धाराओं को पता सकना मनुष्य की सीमित बुद्धि के लिए असम्भव है । फिर भी हमारे दैनिक जीवन में जिनका प्रत्यक्ष संम्पर्क संयोग रहता है उनमें प्रमुख यह हैं- (१) परा शक्ति (२) ज्ञान शक्ति (३) इच्छा शक्ति (४) क्रिया शक्ति (५) कुण्डलिनी शक्ति (६) मातृका शक्ति (७) गुहृ शक्ति ।
इन सबकी सम्मिलित शक्ति पुञ्ज ईश्वरीय प्रकाश सूक्ष्म प्रकाश (Astral Light) कह सकते हैं । यह सातवीं शक्ति है कोई चाहे तो इस शक्ति पुञ्ज को उर्पयुक्त छःशक्तियों का उद्गम भी कह सकता है । इन सबको हम चैतन्य सत्ताएँ कह सकते हैं । उसे पवित्र अग्नि (Sacred Fire) के रूप में भी कई जगह वर्णित किया गया है और कहा गया है उसमें से आग ऊष्मा तो नहीं पर प्रकाश किरणें निकलती हैं और वे शरीर में विद्यमान ग्रंथियों ग्लैण्ड्स, केन्द्रों (Centres) और गुच्छकों को आसाधारण रूप से प्रभावित करती हैं । इससे मात्र शरीर या मस्तिष्क को ही बल नहीं मिलता वरन् समग्र व्यक्तित्व की महान सम्भावना को और अग्रसर करती हैं ।
इन सात चक्रों में अवस्थित सात उर्पयुक्त शक्तियों का उल्लेख साधना ग्रंथों में अलंकारिक रूप में हुआ है । उन्हें सात लोक, सात समुद्र, सात द्वीप, सात पर्वत, सात ऋषि आदि नामों से चित्रित किया गया है ।
इस चित्रण में यह संकेत है कि इन चक्रों में किन-किन स्तर के विराट् शक्ति स्रोतों के साथ सम्बन्ध है । बीज रूप में कौन महान सामर्थ्य इन चक्रों में विद्यमान है और जाग्रत होने पर उन चक्र संस्थानों माध्यम से मनुष्य का व्यक्तित्व छोटे से कितना विराट और विशाल हो सकता है । टोकरी भर बीज से लम्बा-चौड़ा खेत हरा-भरा हो सकता है । अपने बीज भण्डार में सात टोकरी भरा-सात किस्म का अनाज सुरक्षित रखा है ।
चक्र एक प्रकार के शीत गोदाम-कोल्डस्टोर है और इन ताला जड़ा हुआ है । इन सात तालों की एक ही ताली है उसका नाम है 'कुण्डलिनी' । जब उसके जागरण की जाती है । शरीर रूपी साढ़े तीन एकड़ के खेत में वह बोया जाता है । यह छोटा खेत अपनी सुसम्पन्नता को अत्यधिक व्यापक बना देता है ।
पुराण कथा के अनुसार राजा बलि का राज्य तीनों लोकों में था । भगवान् ने वामन रूप में उससे साढ़े तीन कदम भूमि की भीक्षा माँगी । बलि तैयार हो गये । तीन कदम में तीन लोक और आधे कदम में बलि का शरीर नाप कर विराट् ब्रह्म ने उस सबको अपना लिया ।
हमारा शरीर साढ़े तीन हाथ लम्बा है । चक्रों के जागरण में यदि उसे लघु से महान्-अण्ड से विभु कर लिया जाय तो उसकी साढ़े तीन हाथ की लम्बाई-साढ़े तीन एकड़ जमीन न रहकर लोक-लोकान्तरों तक विस्तृत हो सकती है और उस उपलब्धि की याचना करने के लिए भगवान् वामन रूप धारण करके हमारे दरवाजे पर हाथ पसारे हुए उपस्थित हो सकते हैं ।
Source: (सावित्री कुण्डलिनी एवं तन्त्र : पृ-6.24)
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