संक्षिप्त पृष्ठभूमि
सिद्धयोग, योग
के
दर्शन
पर
आधारित
है
जो
कई
हजार
वर्ष
पूर्व
प्राचीन ऋषि
मत्स्येन्द्रनाथ जी
ने
प्रतिपादित किया
तथा
एक
अन्य
ऋषि
पातंजलि ने
इसे
लिपिबद्ध कर
नियम
बनाये
जो
‘योगसूत्र‘ के
नाम
से
जाने
जाते
हैं।
पौराणिक कथा
के
अनुसार
मत्स्येन्द्रनाथ जी
पहले
व्यक्ति थे
जिन्होंने इस
योग
को
हिमालय
में
कैलाश
पर्वत
पर
निवास
करने
वाले
शास्वत
सर्वोच्च चेतना
के
साकार
रूप
भगवान
शिव
से
सीखा
था।
ऋषि
को,
इस
ज्ञान
को
मानवता
के
मोक्ष
हेतु
प्रदान
करने
के
लिये
कहा
गया
था।
ज्ञान
तथा
विद्वता से
युक्त
यह
योग
गुरू
शिष्य
परम्परा में
समय-समय पर दिया
जाता
रहा
है।
कुण्डलिनी शक्ति
परमपिता का
अर्द्धनारीश्वर भाग
शक्ति
कहलाता
है
यह
ईश्वर
की
पराशक्ति है
(प्रबल
लौकिक
ऊर्जा
शक्ति)। जिसे हम
राधा,
सीता,
दुर्गा
या
काली
आदि
के
नाम
से
पूजते
हैं।
इसे
ही
भारतीय
योगदर्शन में
कुण्डलिनी कहा
गया
है।
यह
दिव्य
शक्ति
मानव
शरीर
में
मूलाधार में
(रीढ
की
हड्डी
का
निचला
हिस्सा)
सुषुप्तावस्था में
रहती
है।
यह
रीढ
की
हड्डी
के
आखिरी
हिस्से
के
चारों
ओर
साढे
तीन
आँटे
लगाकर
कुण्डली मारे
सोए
हुए
सांप
की
तरह
पडी
रहती
है।
इसीलिए
यह
कुण्डलिनी कहलाती
है।
चकि
कुण्डलिनी वह
लौकिक
ऊर्जा
है
जो
अतिमानस से
उत्पन्न हुई
है,
यह
एक
त्रिकालदर्शी शक्ति
है
जो
योग
करने
वाले
को
उसकी
सत्यता
का
भान
एवं
आत्मसाक्षात्कार कराती
है
और
उसे
संसार
के
दुःख
तथा
बन्धनों से
अन्तिम
रूप
से
मुक्त
कराने
के
पश्चात
मोक्ष
की
प्राप्ति कराती
है।
कुण्डलिनी तथा
७२,००० नाडयों के
पेचीदा
नेटवर्क के
बीच
घनिष्ठ
संबंध
है।
इन
नाडयों
का
पूरे
मानव
शरीर
में
एक
जाल
सा
बिछा
रहता
है।
इनमें
से
तीन
मुख्य
नाडयाँ
हैं
जो
मूलाधार से
आपस
में
लिपटती
हुई
ऊपर
की
ओर
मस्तिष्क के
ऊपरी
हिस्से
तक
जिसे
सहस्त्रार कहते
हैं,
जाती
हैं।
मध्य
नाडी
जो
प्रमुख
है
सुषुम्ना कहलाती
है।
दो
अन्य
नाडयाँ,
जो
सुषुम्ना के
अगल
बगल
चलती
हैं
इडा
तथा
पिंगला
के
नाम
से
जानी
जाती
हैं
सुषुम्ना में
थोडे-थोडे अन्तराल पर
एक
के
ऊपर
एक
नीचे
से
ऊपर
की
ओर
छः
चक्र
या
चेतना
के
केन्द्र या
लौकिक
ऊर्जा
केन्द्र तथा
तीन
ग्रन्थियाँ होती
हैं।
इन
नाडयों,
चक्रों
तथा
ग्रन्थियों का
तमाम
जाल
अलग
आयाम
में
स्थित
है
जिसके
बारे
में
विज्ञान को
कुछ
पता
नहीं
है।
यह
इतनी
सूक्ष्म अवस्था
में
है
कि
अति
उन्नत
प्रयोगशाला के
उपकरण
इनकी
उपस्थिति का
पता
नहीं
लगा
सकते।
जब
ध्यान
तथा
मंत्र
जाप
से
कुण्डलिनी जाग्रत
हो
जाती
है
तो
यह
सुषुम्ना के
रास्ते
ऊपर
उठती
हुई
सहस्त्रार तक
पहुँचती है,
जो
उसका
अन्तिम
गन्तव्य स्थान
है
जहाँ
इसके
स्वामी
’परम
शिव‘
शास्वत
अतिमानस का
निवास
है।
चूँकि
यह
सुषुम्ना के
चारों
ओर
लपेटे
लेते
हुए
ऊपर
उठती
है,
यह
पूरे
नाडीतंत्र को
ऊर्जावान बना
देती
है
तथा
एक
एक
कर
छः
चक्रों
मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर,
अनाहत,
विशुद्ध एवं
आज्ञा
चक्र
और
तीन
ग्रन्थियों ब्रह्म
ग्रन्थि, विष्णु
ग्रन्थि एवं
रुद्र
ग्रन्थि का
भेदन
करती
है,
और
अन्त
में
साधक
को
समाधि
स्थिति,
जो
समत्व
बोध
की
स्थित
है,
प्राप्त करा
देती
है।
जाग्रत
कुण्डलिनी, सुषुम्ना के
रास्ते
से
अतिमानस से
सीधा
सम्फ
स्थापित कर
लेती
है।
इससे
मानव
शरीर
पूर्णतः रोगमुक्त हो
जाता
है
तथा
साधक
ऊर्जा
युक्त
होकर
आगे
की
आध्यात्मिक यात्रा
हेतु
तैयार
हो
जाता
है।
शरीर
के
रोग
मुक्त
होने
के
सिद्धयोग ध्यान
के
दौरान
जो
बाह्य
लक्षण
हैं
उनमें
यौगिक
क्रियाऐं जैसे
दायं-बायें हिलना, कम्पन,
झुकना,
लेटना,
रोना,
हंसना,
सिर
का
तेजी
से
धूमना,
ताली
बजाना,
हाथों
एवं
शरीर
की
अनियंत्रित गतियाँ,
तेज
रोशनी
या
रंग
दिखाई
देना
या
अन्य
कोई
आसन,
बंध,
मुद्रा
या
प्राणायाम की
स्थिति
आदि
मुख्यतः होती
हैं
।
कुण्डलिनी जागरण का प्रभाव
आरम्भ
करने
वाला
कभी-कभी स्वैच्छिक होने
वाली
यौगिक
क्रियाओं से
यह
सोचकर
भयभीत
हो
जाता
है
कि
या
तो
कुछ
गलत
हो
गया
है
या
फिर
किसी
अदृश्य
शक्ति
की
पकड
में
आ
गया
है
लेकिन
यह
भय
निराधार है।
वास्तव
में
यह
यौगिक
क्रियायें या
शारीरिक हलचलें
दिव्य
शक्ति
द्वारा
निर्दिष्ट हैं
और
प्रत्येक साधक
के
लिये
भिन्न-भिन्न होती हं।
ऐसा
इस
कारण
होता
है
कि
इस
समय
दिव्य
शक्ति
जो
गुरू
सियाग
की
आध्यात्मिक शक्तियों के
माध्यम
से
कार्य
कर
रही
होती
है
वह
यह
भली
भाँति
जानती
है
कि
साधक
को
शारीरिक एवं
मानसिक
रोगों
से
मुक्त
करने
के
लिये
क्या
विशेष
मुद्रायें आवश्यक
हैं।
यह
क्रियायें कोई
भी
हानि
नहीं
पहुँचाती शरीर-शोधन के दौरान
असाध्य
रोगों
सहित
सभी
तरह
के
शारीरिक एवं
मानसिक
रोगों
से
पूर्ण
मुक्ति
मिल
जाती
है
यहां
तक
कि
वंशानुगत रोग
जैसे
हीमोफिलिया से
भी
छुटकारा मिल
जाता
है।
सभी
तरह
के
नशे
छूट
जाते
हैं।
साधक
बढा
हुआ
अन्तर्ज्ञान, भौतिक
जगत
के
बाहर
अस्तित्व के
विभिन्न स्तरों
को
अनुभव
करना,
अनिश्चित काल
तक
का
भूत
व
भविष्य
देख
सकने
की
क्षमता
आदि
प्राप्त कर
सकता
है।
आत्मसाक्षात्कार होने
के
पश्चात
आगे
चल
कर
साधक
को
सत्यता
का
भान
हो
जाता
है
जो
उसे
कर्मबन्धनों से
मुक्त
करता
है
और
इस
प्रकार
कर्मबन्धनों के
कट
जाने
से
दुःखों
का
ही
अन्त
हो
जाता
है।
कुण्डलिनी के
सहस्त्रार में
पहुँचने पर
साधक
की
आध्यात्मिक यात्रा
पूर्ण
हो
जाती
है।
इस
अवस्था
पर
पहुँचने पर
साधक
को
स्वयं
के
ब्रह्म
होने
का
पूर्ण
एहसास
हो
जाता
है
इसे
ही
मोक्ष
कहते
हैं।
फिर
भी
यदि
कोई
साधक
इन
क्रियाओं से
अत्यधिक भयभीत
है
तो
वह
इन्हें
रोकने
हेतु
गुरू
सियाग
से
प्रार्थना कर
सकता
है
प्रार्थना करने
पर
क्रियायें तत्काल
रुक
जायेंगी।
मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर
हमारे
ऋषियों
ने
गहन
शोध
के
बाद
इस
सिद्धान्त को
स्वीकार किया
कि
जो
ब्रह्माण्ड में
है,
वही
सब
कुछ
पिण्ड
(शरीर)
में
है।
इस
प्रकार
मूलाधार चक्र
से
आज्ञा
चक्र
तक
का
जगत
माया
का
और
आज्ञा
चक्र
से
लेकर
सहस्त्रार तक
का
जगत
परब्रह्म का
है।
वैदिक
ग्रन्थों में
लिखा
है
कि
मानव
शरीर
आत्मा
का
भौतिक
घर
मात्र
है।
आत्मा
सात
प्रकार
के
कोषों
से
ढकी
हुई
हैः-
१-
अन्नमय
कोष
(द्रव्य,
भौतिक
शरीर
के
रूप
में
जो
भोजन
करने
से
स्थिर
रहता
है),
२-
प्राणामय कोष
(जीवन
शक्ति),
३-
मनोमय
कोष
(मस्तिष्क जो
स्पष्टतः बुद्धि
से
भिन्न
है),
४-
विज्ञानमय कोष
(बुद्धिमत्ता), ५-
आनन्दमय कोष
(आनन्द
या
अक्षय
आनन्द
जो
शरीर
या
दिमाग
से
सम्बन्धित नहीं
होता),
६-
चित्मय
कोष
(आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा
७-
सत्मय
कोष
(अन्तिम
अवस्था
जो
अनन्त
के
साथ
मिल
जाती
है)। मनुष्य के
आध्यात्मिक रूप
से
पूर्ण
विकसित
होने
के
लिये
सातों
कोषों
का
पूर्ण
विकास
होना
अति
आवश्यक
है।
भौतिक
विकासवाद के
सिद्धान्त के
अनुसार
मनुष्य
ने
प्रथम
चार
कोषों
को
चेतन
करने
में
सफलता
पा
ली
है,
अन्तिम
तीन
कोषों
को
वह
किस
प्रकार
चेतन
करेगा?
श्री
अरविन्द ने
अपनी
फ्रैन्च सहयोगी
शिष्या
के
साथ,
जो
माँ
के
नाम
से
जानी
जाती
थीं,
अपनी
ध्यान
की
अवस्थाओं के
दौरान
यह
महसूस
किया
कि
अन्तिम
विकास
केवल
तभी
हो
सकता
है
जब
लौकिक
चेतना
(जिसे
उन्होंने कृष्ण
की
अधिमानसिक शक्ति
कहा
है)
पृथ्वी
पर
अवतरित
हो।
प्रथम
चार
कोष
जो
मानवता
में
चेतन
हो
चुके
हैं
वहाँ
विद्या
पर
अविद्या का
अधिपत्य है।
शेष
तीन
आध्यात्मिक कोश
जो
मानवता
में
चेतन
होना
बाकी
हैं
यहाँ
अविद्या पर
विद्या
का
प्रभुत्व है।
उपरोक्त सातों
काषों
के
पूर्ण
विकास
को
ही
ध्यान
में
रखकर
महर्षि
श्री
अरविन्द ने
भविष्यवाणी की
है
कि
“आगामी
मानव
जाति
दिव्य
शरीर
(देह)
धारण
करेगी”। हमारे ऋषियों
ने
मनुष्य
शरीर
को
विराट
स्वरूप
प्रमाणित करके
उसके
अन्दर
सम्पूर्ण सृष्टि
को
देखा,
इसके
जन्मदाता परमेश्वर का
स्थान
सहस्त्रार में
और
उसकी
पराशक्ति (कुण्डलिनी) का
स्थान
मूलाधार के
पास
है।
साधक
की
कुण्डलिनी चेतन
होकर
सहस्त्रार में
लय
हो
जाती
है,
इसी
को
मोक्ष
कहा
गया
है।
सिद्धयोग के क्या फायदे हैं?
- इससे साधक
के
सभी
प्रकार
के
असाध्य
रोग
जैसे
कैंसर,
एच.आई.वी./एड्स,
गठिया,
दमा
व
डायबिटीज आदि
शारीरिक रोगों से
मुक्ति
मिल
जाती
है।
- मानसिक रोग
जैसे
भय,
चिन्ता,
अनिद्रा, आक्रोश,
तनाव,
फोबिया
आदि
से
मुक्ति।
- सभी प्रकार
के
नशों
जैसे
शराब,
अफीम,
स्मैक,
हेरोइन,
भाँग,
बीडी,
सिगरेट,
गुटखा,
जर्दा
आदि
से
बिना
परेशानी के
छुटकारा।
- मनोवैज्ञानिक एवं
भावनात्मक असंतुलन को
दूर
कर
शरीर
को
पूर्ण
स्वस्थ
बनाता
है।
- आध्यात्मिकता के
पूर्ण
ज्ञान
के
साथ
भूत
तथा
भविष्य
की
घटनाओं
को
ध्यान
के
समय
प्रत्यक्ष देख
पाना
सम्भव।
- एकाग्रता एवं
याद्दाश्त में
अभूतपूर्व वृद्धि।
- साधक को
उसके
कर्मों
के
उन
बन्धनों से
मुक्त
करता
है
जो
निरन्तर चलने
वाले
जन्म-मृत्यु के चक्र
में
उसे
बांध
कर
रखते
हैं।
- ईश्वरीय शक्ति
द्वारा
तामसिक
वृत्ति
के
शान्त
होने
से
मानव
जीवन
का
दिव्य
रूपान्तरण।
- साधक को
उसकी
सत्यता
का
भान
एवं
आत्मसाक्षात्कार कराता
है।
- गृहस्थ जीवन
में
रहते
हुए
भोग
और
मोक्ष
के
साथ
ईश्वर
की
प्रत्यक्षानुभूति सम्भव।
गुण और
उनका
प्रभाव
क्या
है
वैदिक
धर्मशास्त्र ब्रह्म
के
द्वैतवाद को
स्वीकार करते
हैं
जिसमें
एक
ओर
वह
आकार
रहित,
असीमित,
शास्वत
तथा
अपरिवर्तनशील, अतिमानस चेतना
है
तो
दूसरी
ओर
उसका
चेतनायुक्त दृश्यमान तथा
नित्य
परिवर्तनशील भौतिक
जगत
है।
यह
चेतना
भौतिक
जगत
के
सभी
सजीव
तथा
निर्जीव पदार्थों पर,
जो
तीन
गुणों
के
मेल
से
बने
हैं,
अपना
प्रभाव
डालती
है।
सात्विक (प्रकाशित, पवित्र,
बुद्धिमान व
धनात्मक) राजस
(आवेशयुक्त तथा
ऊर्जावान) और
तामस
(ऋणात्मक, अंधकारमय, सुस्त
तथा
आलसी)।
सत्व
संतुलन
की
शक्ति
है।
सत्व
के
गुण
अच्छाई,
अनुरूपता, प्रसन्नता तथा
हल्कापन हैं।
राजस
गति
की
शक्ति
है।
राजस
के
गुण
संघर्ष
तथा
प्रयास,
जोश
या
क्रोध
की
प्रबल
भावना
व
कार्य
हैं।
तमस
निष्क्रियता तथा
अविवेक
की
शक्ति
है।
तमस
के
गुण
अस्पष्टता, अयोग्यता तथा
आलस्य
हैं।
मनुष्यों सहित
सभी
जीवधारियों में
यह
गुण
पाये
जाते
हैं।
फिर
भी
ऐसे
विशेष
स्वभाव
का
एक
भी
नहीं
है
जिसमें
इन
तीन
लौकिक
शक्तिओं में
से
मात्र
एक
ही
हो।
सब
जगह
सभी
में
यह
तीनों
ही
गुण
होते
ह
लगातार
तीनों
ही
गुण
कम
ज्यादा
होते
रहते
हैं
यह
निरन्तर एक
दूसरे
पर
प्रभावी होने
के
लिये
प्रयत्नशील रहते
हैं।
यही
वजह
है
कि
कोई
व्यक्ति सदैव
अच्छा
या
बुरा,
बुद्धिमान या
मूर्ख,
क्रियाशील या
आलसी
नहीं
होता
है।
जब
किसी
व्यक्ति में
सतोगुणी वृत्ति
प्रधान
होती
है
तो
अधिक
चेतना
की
ओर
उसे
आगे
बढाती
है
जिससे
वह
अतिमानसिक चेतना
की
ओर,
जहाँ
उसका
उद्गम
था,
वापस
लौट
सके
और
अपने
आपको
कर्मबन्धनों से
मुक्त
कर
सके।
राजसिक
या
तामसिक
वृत्ति
प्रधान
व्यक्ति सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु
के
समाप्त
न
होने
वाले
चक्र
में
फँसता
है।
सिद्धयोग की
साधना,
सात्विक गुणों
का
उत्थान
करके
अन्ततः
मोक्ष
तक
पहुँचाती है
जो
अन्तिम
रूप
से
आध्यात्मिक मुक्ति
है।
वृत्तियाँ क्या हैं?
प्रत्येक मनुष्य में तीन
वृत्तियाँ होती
हैं।
इन
वृत्तियों के
अनुसार
ही,
समग्र
रूप
से,
मनुष्य
का
व्यवहार होता
है।
यह
वृत्तियाँ, सत्व,
रजस
और
तमस
गुणों
से
प्रभावित होती
है।
गीता
तथा
योग
सूत्र
के
अनुसार
इनमें
से
प्रत्येक गुण
सिद्धयोग की
साधना
से
उभारा
या
दबाया
जा
सकता
है।
महाकाव्य महाभारत में
भगवान
श्री
कृष्ण
ने
अर्जुन
से
कहा
है
कि
राजस
तथा
तामस
वृत्तियों को
दबाने
तथा
सात्विक वृत्तियों के
उत्थान
में,
ध्यान
मदद
करता
है
जिससे
व्यक्ति स्थायी
स्वास्थ्य, सच्चा
उच्च
ज्ञान
एवं
आत्मसाक्षात्कार प्राप्त कर
सकता
है।
वैदिक
धर्म
शास्त्रों के
अनुसार
केवल
एक
समर्थ
सिद्ध
गुरू
ही
परमार्थवाद संबंधी
उद्देश्य वाले
साधक
को
योग
में
दीर्क्षत करके
उसकी
वृत्तियों में
धनात्मक परिवर्तन ला
सकता
है।
चकि
सतोगुण
एक
संतुलनकारी शक्ति
है
जो
सत्य
ज्ञान
की
मार्गदर्शक है,
बडे
स्तर
पर
इसकी
अभिवृद्धि सम्पूर्ण मानवता
का
रूपान्तरण कर
उसे
लडाई-झगडों से मुक्त
कर
सकती
है
तथा
विश्व
में
शान्ति
एवं
एकता
ला
सकती
है।
वृत्ति परिवर्तन व बुरी आदतों का छूटना
इसी
प्रकार
निरन्तर नाम
जप
व
ध्यान
से
वृत्ति
परिवर्तन भी
होता
है।
मनुष्य
में
मूलतः
तीन
वृत्तियाँ होती
हैं।
सतोगुणी, रजोगुणी एवं
तमोगुणी। मनुष्य
में
जो
वृत्ति
प्रधान
होती
है
उसी
के
अनुरूप
उस
का
खानपान
एवं
व्यवहार होता
है।
निरन्तर नाम
जप
के
कारण
सबसे
पहले
तमोगुणी (तामसिक)
वृत्तियाँ दबकर
कमजोर
पड
जाती
हैं
बाकी
दोनों
वृत्तियाँ प्राकृतिक रूप
से
स्वतंत्र होने
के
कारण
क्रमिक
रूप
से
विकसित
होती
जाती
हैं।
कुछ
दिनों
में
प्रकृति उन्हें
इतना
शक्तिशाली बना
देती
है
कि
फिर
से
तमोगुणी वृत्तियाँ पुनः
स्थापित नहीं
हो
पाती
हैं।
अन्ततः
मनुष्य
की
सतोगुणी प्रधानवृत्ति हो
जाती
है।
ज्यों-ज्यों मनुष्य की
वृत्ति
बदलती
जाती
है
दबने
वाली
वृत्ति
के
सभी
गुणधर्म स्वतः
ही
समाप्त
होते
जाते
हैं।
वृत्ति
बदलने
से
उस
वृत्ति
के
खानपान
से
मनुष्य
को
आन्तरिक घृणा
हो
जाती
है।
इसलिये
बिना
किसी
कष्ट
के
सभी
प्रकार
की
बुरी
आदतें
अपने
आप
छूट
जाती
हैं।
इस
संबंध
में
स्वामी
विवेकानन्द जी
ने
अमेरिका में
कहा
था
“कि
मनुष्य
उन
वस्तुओं को
नहीं
छोडता
वे
वस्तुऐं उसे
छोडकर
चली
जाती
हैं।”
यह परिवर्तन सम्पूर्ण मानव
जाति
में
समान
रूप
से
हो
रहा
है
इसमें
जाति
भेद
एवं
धर्म
परिवर्तन जैसी
कोई
समस्या
नहीं
है।
इसमें
साधक
स्वयं
के
धर्म
में
रहता
हुआ
इस
योग
की
साधना
कर
सकता
है।
मोक्ष
का
अर्थ
है
मनुष्य
अपने
जीवनकाल में
ही
पूर्णता प्राप्त कर
ले,
इस
स्थिति
पर
पहुँचने पर
साधक
पूर्ण
शान्ति
अनुभव
करता
है।
उसे
किसी
प्रकार
का
शारीरिक एवं
मानसिक
कष्ट
नहीं
रहता
है।
शान्ति की तलाश
इस युग
का मानव भौतिक
विज्ञान से
शान्ति चाहता है
परन्तु विज्ञान ज्यों-ज्यों विकसित होता
जा रहा है,
वैसे-वैसे शान्ति
दूर भाग रही
है और अशान्ति
तेज गति से
बढती जा रही
है। क्योंकि शान्ति
का सम्बन्ध अन्तरात्मा
से है, अतः
विश्व में पूर्ण
शान्ति मात्र वैदिक
मनोविज्ञान के
सिद्धान्तों पर
ही स्थापित हो
सकती है। अन्य
कोई पथ है
ही नहीं। भारतीय
योग दर्शन में
वर्णित “सिद्धयोग” से
विश्व शान्ति के
रास्ते की सभी
रुकावटों का
समाधान सम्भव है।
Siddha Yoga In Short: | |||||||||||||||||||
|
Self Realization has always been the ultimate goal of all religions and spiritual traditions of the world. But, It has now become a mass phenomenon achieved effortlessly through Siddha Yoga, which is Guru Siyag’s invaluable gift to humanity.
Mantra Diksha(Online Initiation) is completely free of charge. To receive Diksha the seeker does not have to go through any process of registration.
Yoga | Meditation | Mindfulness
For more info:
अत्यंत प्रेरणादायक लेख।
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