ऐसे समय में हर व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है कि...Top Divine Message, Divine Mantra,Best Meditation Method
दैवी कृपा के अवतरण के लिए शर्त है-
साधक की पात्रता, पवित्रता और प्रामाणिकता।
जो उदारतापूर्वक सबके हित की बात सोचता है, वही मनुष्य श्रेय का अधिकारी हो सकता है।
स्वार्थ की भावना से जो सेवा की जाती है, वह परोपकार नहीं प्रवंचना है।
यदि विश्व को वस्तुतः सुखी रहने की आकाँक्षा हो, यदि कोई इसका ठोस और वास्तविक आधार प्राप्त करना चाहता हो, तो उसे सन्मार्ग ही अपनाना होगा, सद्भावों को धारण करना होगा, सत्कर्मों को ही करना होगा और यह तभी संभव है जब मनःक्षेत्र में अध्यात्म विचारधारा की सुदृढ़ स्थापना हो।
संसार न माया है, न मिथ्या। वह भगवान का विराट् रूप है। उससे अलग होने पर किसी जीवित प्राणी का निर्वाह नहीं।
यह युग संधि की वेला है। युग परिवर्तन का समय है,परिवर्तन की घड़ियां सदा जटिल होती हैं। एक शासन हटता और दूसरा आता है तो उस मध्य काल में कई प्रकार की उलट-पुलट होती देखी गई है। गर्भस्थ बालक जब छोटे से उदर से बाहर निकल कर सुविस्तृत विश्व में प्रवेश करता है तो माता को प्रसव पीड़ा सहनी पड़ती है और बच्चा जीवन-मरण से जूझने वाला पुरुषार्थ करता है। प्रभात काल से पूर्व की घड़ियों में तामसिकता चरम सीमा तक पहुंचती है। दीपक के बुझते समय बाती का उछलना-फुदकना देखते ही बनता है। मरणासन्न की सांसें इतनी तेजी से चलती हैं मानो वह निरोग और बलिष्ठ बनने जा रहा है। चींटी के अन्तिम दिन जब आते हैं तब उसके पर उग आते हैं।
इन उदाहरणों से स्पष्ट है कि परिवर्तन की घड़ियां असाधारण उलट-पुलट की होती हैं। उन दिनों अव्यवस्था फैलती, असुविधा होती और कई बार संकट-विग्रहों की घटा भी घुमड़ती है। युग परिवर्तन की इस संधि बेला में भी ऐसा ही हो रहा है। असुरता जीवन-मरण की लड़ाई लड़ रही है और देवत्व को उसे पदच्युत करके सिंहासनारूढ़ होने में अनेक झंझटों का सामना करना पड़ रहा है। भूतकाल में भी ऐसे अवसरों पर यही दृश्य उपस्थित हुए हैं, ऐसे ही घटना क्रम चले हैं, जैसे कि इन दिनों सामने हैं।गुरुदेव ने अपने जीवन काल में ही सारे घटनाक्रम की रूपरेखा बना दी थी, अब तो रीप्ले ही चल रहा है, आध्यात्मिकता की लहरें और तरंगे पूरी धरती को अपने आवरण में लेने को आतुर है,समय अति निकट है।
अध्यात्म की मान्यता व्यक्ति को सदाचरण और आदर्शवादी कर्त्तव्य−पालन के लिए घाट उठाने तक के लिए प्रोत्साहित करती है। यही वह प्रवृत्ति है, जिससे व्यक्ति का स्तर और समाज का गठन सुव्यवस्थित और समुन्नत रखा जा सकता है।
ऐसे समय में हर व्यक्ति का कर्तव्य बन जाता है कि वह अपने आप को आध्यात्मिक दृष्टि से सम्मुन्नत करें। आइए सिद्ध योग अपनाएं,इसके लिए ना आप कहीं आना है ना कहीं जाना है घर पर ही आजमाना है,सिद्ध योग से आसान कोई रास्ता नहीं है।यह विहंगम मार्ग है,सिद्ध योग का अभ्यास किया नहीं किया जा सकता, यह स्वचलित और स्वघटित होता है। इसमे मानवीय प्रयास निर्रथक है , सिद्ध योग के अभ्यास का मतलब है, हमेशा, शांतचित्त, धैर्य, समभाव , कृतज्ञता और आनंद के राज्य में रहना...
जय गुरुदेव जी...
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