दीक्षा के द्वारा एवं गुरु प्रदत्त विभिन्न साधनाओं के फलस्वरूप साधक-शिष्य अपने जीवन में अनेकानेक चुनौतियों, बाधाओं, रुकावटों को पार करता हुआ सफलता के सोपान चढ़ता ही जाता है यद्यपि इन सोपानों को कुछ शिष्य-साधक शीघ्र पा लेते हैं तो कुछ विलम्ब के बाद क्योंकि उनके पूर्वजन्म के दोष ही उनकी सफलता को अवरुद्ध किए देते हैं।
जब साधक-शिष्य अपने जीवन में कुछ भौतिक सफलताओं और जीवन को सरस बनाने के साधनों को पा लेता है तो भी उनके मन में एक अशांति, एक बैचेनी सदा बनी रहती है कि कैसे वह पूर्ण शांति को प्राप्त करे, अपने जीवन की पूर्णता को प्राप्त करे।
अपनी बाधाओं की समाप्ति के लिये अपने जीवन में मुक्त भाव की प्राप्ति के लिये मनुष्य लगातार छटपटाता रहता है तब वह अन्ततः गुरु की शरण में जाता है।
जब शिष्य अपने जीवन में संतप्त, दग्ध, हताश, निराश, उदास हो जाता है तो कातर स्वर में विगलित कण्ठ से यही प्रार्थना करता है कि हे गुरुदेव! ‘अब मेरा उद्धार करो, अब मुझे ज्ञान प्रकाश दो, अब मुझे आत्म प्रकाश दो, अब मुझे तत्व ज्ञान प्रदान करो।’
यह मानव-शरीर अद्भुत है। इस शरीर में ही समस्त तीर्थ, समस्त मंत्र, समस्त तंत्र, समस्त बीजाक्षर, मूलाक्षर और विहगाक्षर हैं, पर मानव अपने-आपको समझने में असमर्थ रहा है, इसीलिए भटक रहा है। मनुष्य वास्तव में क्या है? इस तथ्य से साक्षात्कार गुरु ही करवाता है।
पर गुरु कौन? वह व्यक्तित्व जो शिष्य की अन्तःशक्ति जगा सके, उसे आत्मानन्द में लीन कर सकें, शक्तिपात द्वारा कुण्डलिनी जाग्रत कर सकें; जो ज्ञान दें, मस्ती दें, प्रेम दें, निष्कामना दें और जीते जी इष्ट के दर्शन करा सकें, वही तो गुरु हैं; ऐसे ही गुरु ‘शिव’ पद के, कल्याण पद के अधिकारी हैं।
यो गुरुः स शिवः प्रोक्तः यः शिवः स गुरुः स्मृतः। उभयोरन्तरं नास्ति गुरोरपि शिवस्य च॥
अर्थात् ‘जो गुरु हैं वही शिव हैं और जो शिव हैं वही गुरु हैं। गुरु और शिव में कुछ भी अन्तर नहीं है’
मानव-जीवन की सार्थकता तभी कही जा सकती है कि जिस कार्य के निमित उसका जन्म हुआ हो, वह अपने उस कार्य को सही प्रकार से सम्पन्न कर दे। इस कार्य की सम्पूर्णता को पहिचानने और पूर्ण कराने का उत्तरदायित्व श्रेष्ठ गुरु पर ही निर्भर करता है। इसीलिए लोकोक्ति है- ‘जिसने श्रेष्ठ गुरु प्राप्त कर लिया, उसने पूर्ण जीवन एवं उसकी सार्थकता प्राप्त कर ली।’
गुरु शक्तिपात दीक्षा के द्वारा जिस प्रकार संसार – बन्धन से मुक्त करते हैं एवं उसे सर्वज्ञत्व आदि ऐश्वर्य, धर्म प्रदान करते हैं, उसी प्रकार साधक की प्रतिभा, ज्ञान से फल प्राप्त होता है।
गुरु – शक्ति की महिमा ही ऐसी है कि एक बार शक्तिपात होने पर साधक को उच्चता प्राप्त कराए बिना शांत नहीं होती – इसमें कोई संदेह नहीं। गुरु-शक्ति-संचार ही साधक के पूर्णत्व लाभ का एकमात्र उपाय है।
योगवसिष्ठ में है –
दर्शनात् स्पर्शनात् शब्दान् कृपया शिष्यदेह के। जनयेत् यः समावेशं शाम्भवं स हि देशिकः॥
योग्य शिष्य का उद्धार करना और अयोग्य शिष्य को योग्य बनाकर उद्धार करना, यही गुरु का कार्य है।
अ-त्रिनेत्रः सर्वसाक्षी अ-चतु र्बाहु रच्युतः।
अ-चतुर्वदनो ब्रह्मा श्री गुरुः कथितः प्रिये ॥
अर्थात् गुरु में तीनों देवों की त्रिगुणात्मक शक्ति समाहित है, गुरु ही भूलोक में प्रत्यक्ष देव हैं।
अयं मयांजलिर्बद्धो दया सागरवृद्धये।
यदनुग्रहतो जन्तु श्चित्रसंसार मुक्तिभाक् ॥
गुरु की कृपा प्राप्ति के लिए शिष्य को बारम्बर हाथ जोड़कर प्रार्थना करते रहना चाहिए। गुरु के अनुग्रह मात्र से जीव जन्म-मृत्यु के चक्र से मुक्त हो जाता है। इस संसार-सागर से पार उतारने का एकमात्र सेतु श्री गुरु ही हैं, अतः उनकी दिव्यता का, सार्वभौमिकता का चिन्तन करते रहना चाहिए, उनके अनुग्रह के बिना कुछ भी सम्भव ही नहीं है, अतः उनकी निरन्तर कृपा प्राप्ति के लिए करबद्ध होकर पुनः-पुनः उनके चरणों में नमन है।
यह गुरुदेव की महती कृपा है कि हम सब परम साक्षात्कार, आत्म साक्षात्कार, ज्ञान साक्षात्कार की क्रिया में संलग्न होने जा रहे हैं। जीवन में आत्मबोध होना, महाबोधि तत्व है। महाबोधि तत्वमसि का ज्ञान ही शक्ति जागरण का आधार है सब शक्तियों का प्रस्फुटन इसी क्रिया के पश्चात् होता है।
यह क्रिया केवल और केवल गुरु द्वारा ही सम्पन्न हो सकती है, इसीलिये तो गुरुदेव सभी शिष्यों को यह महान् दीक्षा प्रदान कर रहे हैं। जीवन में सिद्धाश्रम, ज्ञानगंज की प्राप्ति हो, यह जीवन सिद्धियों से परिपूर्ण हो, वे सिद्धियां जो जीवन के अंधकार को समाप्त कर दें जो हमारे भीतर आनन्द तत्व का बीज अंकुरित कर दें यही तो गुरु का आशीर्वाद है।
गुरु की महिमा के बारे में लिखना, सूर्य को दीपक दिखाने है। यह जीवन का सौभाग्य है कि गुरु और शिष्य का इस प्रकार मिलन हो रहा है और आप सभी इस महान् क्षण के साक्षी बनने के लिये, उस क्षण को जीने के लिये गुरुदेव के पास आपको जाना ही है,
गुरुदेव ने केवल एक आवाज दी है, संकेत दिया है। उस संकेत मात्र ने हमारे जीवन में हलचल मचा दी है। तन-मन मयूर नाच रहा है, आनन्द से रोम-रोम में ऊष्मा-ऊर्जा भर गई है।
हे गुरुदेव आपको वंदन है, आप सभी शिष्यों पर यह महान् कृपा कर रहे हैं। हम तो जन्म-जन्म से आपके ॠणी हैं, आपकी कृपा की यह वर्षा हमारे जीवन में आनन्द की वर्षा है। जिस प्रकार सीप स्वाति नक्षत्र की प्रतीक्षा करती है कि कब स्वाति नक्षत्र आए, आसमान से मेघ की वर्षा हो और उस मेघ की केवल एक बूंद को ग्रहण कर अपने जीवन में मोती की संरचना करूं, जिससे मेरा सीप का जन्म सार्थक हो सके।
हे गुरुदेव! आप अपनी एक अमृत बूंद हमारे मस्तक पर प्रवाहित कर दें, उस अमृत बूंद को ग्रहण कर हम अपने जीवन में ज्ञान मोती को आलोकित कर देंगे।
आऔ दिव्य दृष्टि. प्राप्त करे,..ईश्वर, अनुभूति प्रत्यक्ष और साक्षात्कार का विषय है ... कथा, कहानी सुनने सुनाने या बहस करने का नहीं है....सिद्ध योग का अभ्यास किया नही जा सकता , यह अपने आप होता है,सिद्ध योग के अभ्यास का मतलब है,हमेशा, धैर्य , समभाव, कृतज्ञता और आनंद के राज्य में रहना...
.जय गुरुदेव जी.
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