समरसता का पर्याय है नाथ संप्रदाय
नाथ संप्रदाय की परंपरा में गुरु गोरक्षनाथ ने
मध्यकाल में सामाजिक समरसता का सबसे बड़ा अभियान चलाया। उनके अभियान में हिंदू
धर्म की विभिन्न जातियों को स्थान मिला। उस समय तो कई मुस्लिम भी नाथ संप्रदाय में
दीक्षित हुए और सिद्ध के रूप में प्रतिष्ठा पाई। श्री गोरक्षनाथ की शिक्षा एंव
चमत्कारों से प्रभावित होकर अनेकों बड़े राजाओं ने इनसे दीक्षा प्राप्त की। अपने
विपुल वैभव को त्याग कर ऐसे लोगों ने आत्मोप्लब्धि प्राप्त की तथा जनकल्याण के
कार्य में अग्रसर हुए…नाथ
संप्रदाय का भारत के सामाजिक-सांस्कृतिक ढांचे के संरक्षण में अद्वितीय योगदान है।
लंबे समय से विदेशी दासता झेल रहे समाज में इस संप्रदाय ने नई स्फूर्ति पैदा की और
ऊंच-नीच की भावना से परे जाकर आध्यात्मिक तत्व को समझने की दृष्टि पैदा की। आद्य
शंकराचार्य इस संप्रदाय के आदि पुरुष माने जाते हैं।
एक मानव-उपदेशक से भी ज्यादा श्री गोरक्षनाथ जी
को काल के साधारण नियमों से परे एक ऐसे अवतार के रूप में देखा गया जो विभिन्न
कालों में धरती के विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुए। सतयुग में वह लाहौर पार पंजाब के
पेशावर में रहे, त्रेतायुग
में गोरखपुर में निवास किया,
द्वापरयुग में द्वारिका के पार भुज में और कलियुग में पुनः गोरखपुर
के पश्चिमी काठियावाड़ के गोरखमढ़ी(गोरखमंडी) में तीन महीने तक यात्रा की।
संत कबीर पंद्रहवीं शताब्दी के भक्त कवि थे।
इनके उपदेशों से गुरुनानक भी लाभान्वित हुए थे। संत कबीर को भी गोरक्षनाथ जी का
समकालीन माना जाता हैं। गोरक्षनाथ जी की एक गोष्ठी में कबीर और गोरक्षनाथ के
शास्त्रार्थ का भी वर्णन है। इस आधार पर इतिहासकर विल्सन गोरक्षनाथ जी को
पंद्रहवीं शताब्दी का मानते हैं।
पंजाब में चली आ रही एक मान्यता के अनुसार राजा
रसालु और उनके सौतेले भाई पूरनमल भगत भी गोरक्षनाथ से संबंधित थे। रसालु का यश
अफगानिस्तान से लेकर बंगाल तक फैला हुआ था और पूरनमल पंजाब के एक प्रसिद्ध संत थे।
ये दोनों ही गोरक्षनाथ जी के शिष्य बने और पूरनमल तो एक प्रसिद्ध योगी बने। जिस
कुँए के पास पूरनमल वर्षो तक रहे, वह आज भी सियालकोट में विराजमान है। रसालु
सियालकोट के प्रसिद्ध सालवाहन के पुत्र थे।
बंगाल से लेकर पश्चिमी भारत तक और सिंध से
राजस्थान पंजाब में गोपीचंद भरथरी , रानी पिंगला और
राजा भर्तृहरि से जुड़ी एक और मान्यता भी है। इसके अनुसार गोपीचंद की माता मानवती
को भर्तृहरि की बहन माना जाता है। भर्तृहरि ने अपनी पत्नी रानी पिंगला की मृत्यु
के पश्चात् अपनी राजगद्दी अपने भाई उज्जैन के चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य
(चंन्द्रगुप्त द्वितीय) के नाम कर दी थी। भर्तृहरि बाद में गोरक्षनाथ के परमप्रिय
शिष्य बन गये थे।
राजकुमार बप्पा रावल जब किशोर अवस्था में अपने
साथियों के साथ राजस्थान के जंगलों में शिकार करने के लिए गए थे, तब उन्होंने
जंगल में संत गुरू गोरखनाथ को ध्यान में बैठे हुए पाया। बप्पा रावल ने संत के
नजदीक ही रहना शुरू कर दिया और उनकी सेवा करते रहे। गोरखनाथ जी जब ध्यान से जागे
तो बप्पा की सेवा से खुश होकर उन्हें एक तलवार दी जिसके बल पर ही चित्तौड़ राज्य की
स्थापना हुई।
गोरखनाथ जी ने नेपाल और पाकिस्तान में भी योग
साधना की। पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में स्थित गोरख पर्वत का विकास एक पर्यटन
स्थल के रूप में किया जा रहा है। इसके निकट ही झेलम नदी के किनारे राँझा ने
गोरखनाथ से योग दीक्षा ली थी। नेपाल में भी गोरखनाथ से सम्बंधित कई तीर्थ स्थल
हैं।
राजस्थान में बहुत प्रचलित है। राजस्थान के
महापुरूष गोगाजी का जन्म गुरू गोरखनाथ के वरदान से हुआ था। गोगाजी की माँ बाछल
देवी निःसंतान थी। संतान प्राप्ति के सभी यत्न करने के बाद भी संतान सुख नहीं
मिला। गुरू गोरखनाथ गोगामेडीश् के टीले पर तपस्या कर रहे थे। बाछल देवी उनकी शरण
मे गईं तथा गुरू गोरखनाथ ने उन्हें पुत्र प्राप्ति का वरदान दिया और एक गुगल नामक
फल प्रसाद के रूप में दिया। प्रसाद खाकर बाछल देवी गर्भवती हो गई और तदुपरांत गोगाजी
का जन्म हुआ। गुगल फल के नाम से इनका नाम गोगाजी पड़ा। गोगाजी वीर और ख्याति
प्राप्त राजा बने। गोगामेडी में गोगाजी का मंदिर एक ऊंचे टीले पर मस्जिदनुमा बना
हुआ है, इसकी
मीनारें मुस्लिम स्थापत्य कला का बोध कराती हैं। कहा जाता है कि फिरोजशाह तुगलक
सिंध प्रदेश को विजयी करने जाते समय गोगामेडी में ठहरे थे। रात के समय बादशाह
तुगलक व उसकी सेना ने एक चमत्कारी दृश्य देखा कि मशालें लिए घोड़ों पर सेना आ रह
है। तुगलक की सेना में हाहाकार मच गया। तुगलक की साथ आए धार्मिक विद्वानों ने बताया कि यहां कोई महान
सिद्ध है जो प्रकट होना चाहता है। फिरोज तुगलक ने लड़ाई के बाद आते समय गोगामेडी
में मस्जिदनुमा मंदिर का निर्माण करवाया। यहाँ सभी धर्मो के भक्तगण गोगा मजार के
दर्शनों हेतु भादौं (भाद्रपद) मास में उमड़ पडते हैं। इन्ही गोगाजी को आज जावरवीर
गोगा कहते है और राजस्थान से लेकर विहार और
पश्चिम बंगाल तक इसके श्रद्धालु रहते हैं ।
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