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"शिव एवं शक्ति अभिन्न हैं, अतः दो होकर भी एक हैं एवं एक होकर भी दो हैं"
 
जहाँ तक हमारी ऑंखें जा सकती हैं,वहाँ तक हम जा चुके हैं; जहाँ तक हमारा मन जा सकता है वहाँ तक हमारी मनोयात्रा भी पूरी हो चुकी है और जहाँ तक हमारी वाणी जा सकती है, वहाँ तक हम पहुँच चुके हैं | अतः हम वहाँ  तक जाना चाहते हैं, जहाँ आँखें ना जा सकें, हम वहाँ पहुँचना चाहते हैं, जहाँ तक हमारा मन ना पहुँच सके और हम उस अचिन्त्य ऊँचाई तक उड़ना चाहते हैं, जहाँ तक हमारी वाणी भी उड़ के ना जा सके | यही हमारी उत्कंठा है और उस परम बिंदु तक पहुँचने के विषय में वही हमारी सारी जिज्ञासा है|


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