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जय गुरुदेव ।।

मैं अशोक सैन बीकानेर राजस्थान से आज आपके साथ गुरुदेव के आशीर्वाद से अपनी साधना के अनुभव साझा कर रहा हूँ इस आशा के साथ कि ये अनुभव किसी भी नए साधक के सभी प्रश्नों का उत्तर दे पाएंगे ।

बस कुछ ही दिन पहले गुरु सियाग के संरक्षण में सिद्ध योग के मार्ग पर आया हूँ, और इन दिनों में मैंने इस विलक्षण योग को तकनीकी रूप से समझने का भरसक प्रयास किया है, इसे कितना समझ पाया ये तो पक्का नहीं कह सकता पर बहुत से सन्देहों को मैंने दूर कर लिया है जो किसी भी नए साधक के मन मे आते हैं, यह किसी भी प्रकार का विज्ञापन नहीं है पहले ही आपको बता दूँ ये तो बस सदभाव की दृष्टि से लिखा गया एक सन्देश है कि गुरु सियाग द्वारा दिये जा रहे इस अमृत फल का लाभ अधिक से अधिक भटके हुए साधक पा सकें।

हो सकता है ये सन्देश थोड़ा लम्बा हो जाये पर इस साधना के अपने सभी तकनीकी अनुभव आपको बता पाँउ इसका प्रयास करूँगा। सत्य कहूँ तो 16 या 17 वर्ष की उम्र से ध्यान-योग की यात्रा पर निकल पड़ा, इसे सत्य की खोज कहूँ या स्वंय की क्षमताओं में वृद्धि करने का लोभ कह नहीं सकता पर इस यात्रा में ऐसे कई अनुभव मैंने किये हैं जिनके आधार पर मैं यह पूरे विश्वाश के साथ कह सकता हूँ कि परम् तत्व के साक्षात्कार हेतु ऐसे तो अनेकों मार्ग हैं और अपने आप में वे सभी परिपूर्ण है  पर गुरु सियाग द्वारा प्रदत्त इस सिद्ध योग पद्धति सा सरल और सटीक परिणाम दाई दूसरा कोई भी योग मार्ग जन सामान्य के बस की बात नहीं है ।

अचंभे की बात है कि जिन दिनों इस यात्रा पर निकला था उसी समय किसी माध्यम से गुरु सियाग की जानकारी हुई थी और मुझे उनकी फोटो वाला एक कार्ड भी दिया गया था पर किसी कारणवश मैंने इस पद्धति पर भरोसा नहीं किया और किसी अन्य मार्ग खोज पर निकल पड़ा था ।

इसके पश्चात मैंने आसन प्रणायाम , गायत्री मन्त्र जप की साधना भी की , अच्छे फल भी प्राप्त हुए पर वो नहीं मिला जिसकी तलाश में मैं था ।

इसके पश्चात विपश्यना की दीक्षा ली , विपश्यना शिविर भी जॉइन किया , इससे भी कई लाभ हुए पर मैं एक आस्तिक व्यक्ति हूँ और इस पद्धति की नास्तिकता की बातों से मेरा मेल न बैठ सका। फिर भी विपश्यना साधना करता रहा।

इसके पश्चात सद्गुरु जग्गी वासुदेव की प्रेरणा से शिव भक्ति की तरफ अग्रसर हुआ , शाम्भवी मुद्रा की साधना भी की। बहुत से अच्छे अनुभव हुए पर मुझे अब भी वो वास्तविक अनुभव नहीं हो पा रहा था जिसकी मुझे तलाश थी इसी दौरान एक बार फिर से गुरु सियाग ने मेरी और ध्यान दिया और मुझे एक बार फिर किसी माध्यम से सिद्ध योग की जानकारी प्राप्त हुई।

प्रथम बार जब इससे सम्बंधित वीडियो देखे तो थोड़ा हंसा और वापस अपनी राह पर निकल पड़ा, अब इसे अपनी मूर्खता कहता हूं। परन्तु इस बार गुरुदेव ने यह पक्का निश्चय कर लिया था कि मुझ भटके को सही मार्ग दिखाना ही है ...बस कुछ ही दिन बाद वापस सिद्ध योग की तरफ लौटा और सोचा कि हालांकि इनकी बातें मेरी समझ से बिल्कुल बाहर है और मैंने जितना सीखा और समझा है उसके मुताबिक ये बिल्कुल सम्भव ही नहीं है जो यह बता रहे हैं पर चलो एक बार करके तो देखते हैं ...ऐसा सोचकर गुरु देव की वाणी से संजीवनी मन्त्र लिया और साधना में बैठ गया।

प्रथम दिन की साधना से कोई विशेष अनुभूति तो नहीं हुई पर मन इतना प्रसन्न हुआ जैसे वर्षों की तलाश पूरी हो गई, पूरे दिन बहुत ही ज्यादा खुश रहा। परन्तु यह अनुभव अगले दिनों नहीं मिल पाया , इसी दौरान गुरु भाई धर्मेंद्र जी से परिचय हुआ और उनसे वाट्सएप्प के जरिये वार्ता होती रही। आगे आने वाले दस से पंद्रह दिन तक कोई विशेष अनुभूति नहीं मिली फिर भी मैं साधना करता रहा शायद यह धर्मेंद्र जी जैसे गुरु भाइयों की प्रेरणा से सम्भव हो पाया क्योंकि अगर ये मेरे सन्देहों को लगातार दूर न करते तो मैं जल्दी ही इस साधना को छोड़ किसी नए मार्ग की तलाश में निकल पड़ता, और साथ ही साथ मैं इस साधना से संबंधित रिसर्च पर भी लगा रहा, क्योंकि गुरु, पिता व ईश्वर के बारे में कोई भी भ्रम या संदेह शिष्य, पुत्र व भक्त के लिए विनाशकारी है।

कृष्ण ने स्वंय उस भक्त को सबसे प्रिय कहा है जो ज्ञान को ढूंढ़ने के लिए जिज्ञासु होता है, जो अनुकरण की अपेक्षा अनुभव पर विश्वास करता है। सभी नए साधकों से भी मेरा ये अनुरोध है कि आप आँख बंद करके अनुकरण मत करिए, आप अनुभव कीजिये फिर कोई मत रखिए।आप बिना अनुभव किए ही कोई मत रखेंगे तो शायद इससे बड़ी मूर्खता कुछ न होगी, आप एक अंधेरे कमरे में बैठे हो गुरु आपसे कह रहे हैं कि बाहर सूर्य चमक रहा है, बहुत तेज रोशनी है मेरे साथ बाहर चलो मैं तुम्हे इस अंधेरे से छुटकारा दिला दूंगा, और आप इसे अनुभव किये बिना ही गुरु को गलत ठहरा रहे हैं कि ऐसा कभी हो ही नहीं सकता क्योंकि आप तो अपने जन्म के बाद से ही उस अंधेरे कमरे में बैठे हैं आपने कभी रोशनी देखी ही नहीं, इन हालात में आपका कर्तव्य बनता है कि आप गुरु के साथ बाहर जाएं और सूर्य का प्रत्यक्ष अनुभव करें, भले ही एक बार आपको आँख बंद करके किसी का अनुकरण करना पड़े तो करिए, फिर अगर आपको सूर्य न दिखे, कोई अनुभव न हो तो आप अपना मार्ग बदल सकते हैं।

इसी क्रम में मैंने जाना कि आखिर संजीवनी मंत्र को लगातार जपने से क्या होगा ??? विपश्यना में हमें दस दिनों के शिविर में आर्य मौन का पालन करवाया गया, जिसमें हमें न तो किसी से बात करनी थी न किसी से नजरे मिलानी थी न कुछ पढ़ना था। इससे हमारा ध्यान बाहर की तरफ से अंदर की तरफ प्रसारित हुआ और हमारे मन का शोर समाप्त हुआ। बिल्कुल वैसे ही गुरु मन्त्र के जप का असर हुआ, हालांकि इसकी तकनीक अलग है और शायद शक्तिशाली भी। जब हम राउंड दी क्लॉक संजीवनी मंत्र का जाप करते हैं तो हमारा ध्यान बाहर की अपेक्षा अंदर की तरफ प्रसारित होता है और हमारे मन का शोर भी समाप्त होता है।

साथ ही साथ इस मन्त्र को जपने से आपकी पिनियल ग्लैंड पर स्पंदन होता है जिसकी वजह से आपका आज्ञा चक्र सक्रिय होने लगता है।

इस मंत्र का रहस्य इससे बढ़कर भी हो सकता है पर मैं केवल उतना बता रहा हूँ जितना अब तक मैं समझ पाया हूँ। सबसे बड़ा अचंभा मुझे तब हुआ जब मैंने कुछ साधकों को ध्यान के दौरान अजीब तरह की हरकतें करते देखा, कोई रो रहा है कोई नाच रहा है कोई हंस रहा है कोई अपने शरीर को विभिन्न तरह से मोड़ रहा है, प्रथम बार तो मुझे डर लगा फिर इस अज्ञानी व्यक्ति ने यह सोचा कि ये सब नाटक कर रहे हैं शायद इन सबको किसी प्रकार का लोभ देकर ये सब करवाया जा रहा है, क्योंकि मैंने तो कभी ध्यान के दौरान यह सब नहीं किया न ही किसी को करते देखा और आखिर ये किस तरह का योग है, इससे भला क्या फायदा होने वाला है किसी को, भला रोने से ही किसी की कोई बीमारी ठीक हुई है अब तक ???

साधकों, थोड़ी सी रिसर्च के बाद मुझे यह पता लगा कि अगर आप सच में ध्यान की अवस्था मे जाने वाले हैं तो यह सब क्रियाएं तो होकर ही रहेगी, यह उस अवस्था का द्वितीय चरण है, प्रथम चरण में आप ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि मुझे ध्यान की अवस्था मे ले जाओ, गुरु सियाग योग में आप प्रार्थना गुरु से करते हैं। ये क्रियाएं आखिर क्यों होती है ?? जीवन एक अनन्त सागर है और इसमें सुख दुख की लहरे आती जाती है, लहर चली जाती है पर उसका प्रभाव हमारे अवचेतन मन पर स्थाई रह जाता है, और उन्ही के कारण हमारे अंदर विभिन्न संस्कारों का निर्माण हो जाता है और यही संस्कार हमारे आने वाले जीवन का निर्धारण करते है, इन्ही की बदौलत हम सुखी हो जाते हैं या दुखी हो जाते हैं या हो सकता है किसी गंभीर बीमारी का शिकार हो जाते हैं, उस बीमारी का बीजारोपण यही संस्कार करते हैं, अब तो विज्ञान ने भी यह प्रमाणित कर दिया है कि शरीर मे कोई भी बीमारी आने से छः महीने पहले शरीर मे उसका बीजारोपण हो जाता है और शरीर मे विभिन्न रिएक्शन होने लगते हैं, ये बीज वही संस्कार हैं।

इन संस्कारों को मिटाना साधारण मनुष्य के वश की बात नहीं, अपने अवचेतन मन मे जाना ही बहुत बड़ी क्रिया है फिर वहां जाकर संस्कारों को मिटाना तो असम्भव सा लगता है। किसी सशक्त योग क्रिया द्वारा ही ये संभव है, और उसके लिए मनुष्य को बहुत प्रयत्न करना पड़ता है।

गुरु सियाग ने साधकों के लिए इसे इतना सरल बना दिया कि साधक को तो कोई भी विशेष प्रयत्न नहीं करना पड़ता, ये क्रिया स्वंय ही घटित हो जाती है। और जब हम अपने अवचेतन मन मे जाते हैं तो विभिन्न संस्कारों के अनुसार विभिन्न क्रियाएं हम करते हैं और उन्हें मिटाते हैं, जैसे दुःख को मिटाना है तो हम रोते हैं, किसी झुंझलाहट को मिटाने के लिए हम पागलों सी हरकत करते हैं, जितने अधिक संस्कार होंगे उतनी अधिक क्रियाएं होंगी।

जितना नया साधक होगा उतनी ही क्रियाएं होंगी, अगर आप पहले से किसी ध्यान पद्धति को करते आ रहे हैं तो शायद ये क्रियाएं कम होंगी क्योंकि आप धीरे धीरे इस क्रिया के अभ्यस्त हो चुके हैं, बिल्कुल वैसे ही जैसे हम नए नए व्यायाम करने लगते हैं तो कुछ दिन हमारा पूरा शरीर भय दर्द करता है, और अगर हम थोड़ा थोड़ा व्यायाम हमेशा से करते आये हैं तो भले ही अचानक एक दिन बहुत अधिक व्यायाम कर लें तो भी शरीर मे दर्द नहीं होता। मैं फिर से आपको बता दूँ मैं केवल वो बता रहा हूँ जितना मैं अब तक तकनीकी रूप से समझ पाया हूँ, इन सब चीजों का रहस्य इससे बढ़कर भी हो सकता है।

तो गुरुदेव ने मेरे इस प्रश्न का भी समाधान कर दिया और शायद इससे आपके प्रश्न का उत्तर भी मिला होगा। गुरु के प्रति समर्पण से आखिर क्या तात्पर्य हुआ?? क्या गुरु की अंधभक्ति करें, क्या उनकी दिन रात अगरबत्ती करें ??? नहीं, गुरु सियाग के प्रति समर्पण से तात्पर्य ये है कि आप अपने मन में निश्चित हो जाएं कि इस मार्ग में सफलता आपको गुरु जरूर दिलाएंगे, उन पर किसी भी प्रकार की शंका न करें। ध्यान के दौरान इस समर्पण की सबसे अधिक आवश्यकता पड़ती है, उस दौरान आपको अपनी तरफ से कोई भी प्रयास नहीं करना है। सिवाय मन्त्र जप के, केवल गुरु की तस्वीर देखनी है, अगर आप अपनी और से प्रयत्न करते रहेंगे तो शायद गुरु कुछ न कर पाएंगे। आपको बस अपने शरीर को गुरु के हवाले करना है।

यही गलती कुछ दिन मैंने की, अपनी ओर से कुछ न कुछ करता रहा और मुझे गुरु का पूरा सहयोग नहीं मिल पाया। जैसे ही मैंने गुरुदेव के समक्ष समर्पण किया शरीर मे विभिन्न तरह की वास्तविक अनुभूतियाँ होनी प्रारम्भ हो गई। कुंडलिनी शक्ति का प्रत्यक्ष अनुभव मैंने किया, मैं कभी सोच भी नहीं सकता था कि ऐसा अनुभव मैं कर पाऊंगा, जैसे कोई केंचुआ आपकी रीढ़ की हड्डी में प्रवेश कर गया हो और संचरण कर रहा हो। आज्ञा चक्र पर हरी, लाल व नीले रंग की रोशनी का प्रवाह देखना व ध्यान के दौरान इतनी तेज ध्वनि में नाद सुनाई देना जैसे आपके कान के पर्दे ही फट जाएं। हमेशा प्रसन्न बने रहना, चाहकर भी क्रोध न कर पाना, संगीत की नई नई स्वर लहरियाँ अपने आप बनते जाना।

रुचिवश मैं बांसुरी वादन करता हूँ, लेकिन जब से गुरु सियाग की शरण मे आया हूँ मेरी बांसुरी तो जैसे कृष्ण की बांसुरी बन चुकी है, जब भी बांसुरी बजाता हूँ गुरुदेव की तस्वीर आज्ञा चक्र पर देखता रहता हूं और फिर ऐसे ऐसे स्वर निकलते हैं जिन पर स्वंय मुझे अचंभा होता है कि क्या वास्तव में इस वक्त बांसुरी मैं ही बजा रहा हूँ ?? और ये सब अनिभूतियाँ बस एक ही माह के अंदर अंदर .... सोचता हूँ अगर गुरुदेव कि शरण में प्रथम दिन ही आ जाता तो अब तक न जाने कितने दिव्य अनुभव कर लेता।

अपने स्वंय के अनुभव से कह रहा हूँ कि इस कलियुग में केवल गुरु सियाग ही एकमात्र ऐसे गुरु हैं जो बिना किसी लोभ लालच के सबको दिव्य शरीर प्रदान कर रहे हैं, बिना किसी सन्देह के आप इनकी शरण मे आ जाइये, स्वंय अनुभव कीजिये फिर अपना कोई मत रखिये। अंत मे सभी साधकों को एक विशेष बात बता दूं कि ध्यान की पद्धति में नियमितता अति अति आवश्यक है। दिन में दो बार ध्यान करना ही है चाहे कुछ भी हो जाए। अगर आपको कुआं खोदना है तो आपको एक ही जगह लगतार खोदना पड़ता है न कि कभी खोद लिया कभी नहीं। सबको शुभकामनाएं, गुरु आपकी साधना यात्रा को सफल बनायें ..

जय गुरुदेव ।।।

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