संसार की
प्रथम पुस्तक ऋग्वेद में कई स्थानों पर यौगिक
क्रियाओं के विषय में उल्लेख मिलता
है।
'यस्मादृते
न सिध्यति यज्ञो विपश्चितश्चन। स धीनां
योगमिन्वति।।-ऋक्संहिता, मंडल-1, सूक्त-18,
मंत्र-7। अर्थात- योग के बिना विद्वान का भी कोई
यज्ञकर्म सिद्ध नहीं होता। वह योग क्या है? योग
चित्तवृत्तियों का निरोध है, वह कर्तव्य कर्ममात्र
में व्याप्त है।
स घा नो
योग आभुवत् स राये स पुरं ध्याम। गमद् वाजेभिरा स
न:।।- ऋ. 1-5-3 अर्थात वही परमात्मा हमारी समाधि
के निमित्त अभिमुख हो, उसकी दया से समाधि, विवेक,
ख्याति तथा ऋतम्भरा प्रज्ञा का हमें लाभ हो, अपितु
वही परमात्मा अणिमा आदि सिद्धियों के सहित हमारी
ओर आगमन करे।
उपनिषद
में इसके पर्याप्त प्रमाण उपलब्ध हैं। कठोपनिषद
में इसके लक्षण को बताया गया है- ''तां
योगमित्तिमन्यन्ते स्थिरोमिन्द्रिय
धारणम्''
योगाभ्यास
का प्रामाणिक चित्रण लगभग 3000 ई.पू. सिन्धु घाटी
सभ्यता के समय की मोहरों और मूर्तियों में मिलता
है। योग का प्रामाणिक ग्रंथ 'योगसूत्र' 200 ई.पू.
योग पर लिखा गया पहला सुव्यवस्थित ग्रंथ
है।
हिंदू,
जैन और बौद्ध धर्म में योग का अलग-अलग तरीके से
वर्गीकरण किया गया है। इन सबका मूल वेद और उपनिषद
ही रहा है।
वैदिक
काल में यज्ञ और योग का बहुत महत्व था। इसके लिए
उन्होंने चार आश्रमों की व्यवस्था निर्मित की थी।
ब्रह्मचर्य आश्रम में वेदों की शिक्षा के साथ ही
शस्त्र और योग की शिक्षा भी दी जाती थी। ऋग्वेद को
1500 ई.पू. से 1000 ई.पू. के बीच लिखा गया माना
जाता है। इससे पूर्व वेदों को कंठस्थ कराकर हजारों
वर्षों तक स्मृति के आधार पर संरक्षित रखा
गया।
भारतीय
दर्शन के मान्यता के अनुसार वेदों को अपौरुषेय
माना गया है अर्थात वेद परमात्मा की वाणी हैं तथा
इन्हें करीब दो अरब वर्ष पुराना माना गया है। इनकी
प्राचीनता के बारे में अन्य मत भी हैं। ओशो रजनीश
ऋग्वेद को करीब 90 हजार वर्ष पुराना मानते
हैं।
563
से
200 ई.पू. योग के तीन अंग तप, स्वाध्याय और ईश्वर
प्राणिधान का प्रचलन था। इसे क्रिया योग कहा जाता
है।
जैन और
बौद्ध जागरण और उत्थान काल के दौर में यम और नियम
के अंगों पर जोर दिया जाने लगा। यम और नियम अर्थात
अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य, अस्तेय, अपरिग्रह, शौच,
संतोष, तप और स्वाध्याय का प्रचलन ही अधिक रहा।
यहाँ तक योग को सुव्यवस्थित रूप नहीं दिया गया
था।
पहली दफा
200 ई.पू. पातंजलि ने वेद में बिखरी योग विद्या का
सही-सही रूप में वर्गीकरण किया। पातंजलि के बाद
योग का प्रचलन बढ़ा और यौगिक संस्थानों, पीठों तथा
आश्रमों का निर्माण होने लगा, जिसमें सिर्फ राजयोग
की शिक्षा-दीक्षा दी जाती थी।
भगवान
शंकर के बाद वैदिक ऋषि-मुनियों से ही योग का
प्रारम्भ माना जाता है। बाद में कृष्ण, महावीर और
बुद्ध ने इसे अपनी तरह से विस्तार दिया। इसके
पश्चात पातंजलि ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया। इस
रूप को ही आगे चलकर सिद्धपंथ, शैवपंथ, नाथपंथ
वैष्णव और शाक्त पंथियों ने अपने-अपने तरीके से
विस्तार दिया।
योग
परम्परा और शास्त्रों का विस्तृत इतिहास रहा है।
हालाँकि इसका इतिहास दफन हो गया है अफगानिस्तान और
हिमालय की गुफाओं में और तमिलनाडु तथा असम सहित
बर्मा के जंगलों की कंदराओं में।
जिस तरह
राम के निशान इस भारतीय उपमहाद्वीप में जगह-जगह
बिखरे पड़े है उसी तरह योगियों और तपस्वियों के
निशान जंगलों, पहाड़ों और गुफाओं में आज भी देखे
जा सकते है। बस जरूरत है भारत के उस स्वर्णिम
इतिहास को खोज निकालने की जिस पर हमें गर्व
है।