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कबीर दास का राम निरंजन, नाथ पंथ का अलख निरंजन( निर्गुण और सगुण) सिद्धयोग से सरल और सहज कोई साधना नहीं 




कबीर दास का राम निरंजन, नाथ पंथ का अलख निरंजन( निर्गुण और सगुण) सिद्ध योग का आधार:-


(सिद्ध योग से सरल और सहज कोई साधना नहीं)


जय दादा गुरुदेव,जय गुरुदेव 🙏🙏🙏🙏😇😇


कबीरदास की वाणी में ऐसे शब्द आए हैं; जो ब्रह्माण्ड; पिण्ड; साधना; प्राणायाम; योग; हठयोग; ब्रह्म; जीव; माया; जगत के प्रतीकार्थों के धारक हैं। कबीर का अवधूत; निरंजन; निर्गुण; बहुत झीणा है। जिस सहज समाधि की राह पर चलते हुए कबीर शून्य शिखर के गढ़ पर पहुँचे हैं; वह राह अन्तःक्रियाओं की है। बहुत पहले नाथ पंथ ने परम शिव को पाने की हठयोग नामक साधना पद्धति खोजी। इस साधना पद्धति को बहुत कुछ कबीर ने अपनाया है। जिसे नाथपंथी द्वैत-अद्वैत से भी परे मानते हैं; वह परम तत्व ब्रह्मा भी नहीं हैं; विष्णु भी नहीं हैं; इन्द्र भी नहीं हैं; पृथ्वी भी नहीं है; जल भी नहीं है; वायु भी नहीं है; अग्नि भी नहीं है; आकाश भी नहीं है; वेद भी नहीं है; सूर्य भी नहीं है; चन्द्र भी नहीं है; विधि और कल्प भी नहीं है। वह सबसे विलक्षण ज्योति स्वरूप सत्य है।


इस विलक्षण ज्योति स्वरूप सत्य से सृष्टि की उत्पत्ति से सम्बन्धित व्याख्या 'शारदातिलक' में बड़े सटीक ढंग से की गई है- शिव के दो रूप हैं- निर्गुण और सगुण। शिव प्रकृति के योग से सगुण रूप में आविर्भूत होते हैं। सगुण शिव से शक्ति की उत्पत्ति होती है। शक्ति से नाद और नाद से बिन्दु उत्पन्न होते हैं। निर्गुण शिव से सगुण शिव; सगुण शिव से शक्ति; शक्ति से नाद; नाद से बिन्दु; यह सृष्टि-रचना का क्रम है। नाद और बिन्दु अव्यक्त अवस्था में परम शान्त रहते हैं। नाद का बिन्दु में विस्तार होता है; तो स्फोट होता है। बिन्दु का स्फोट होते ही तीन स्थितियाँ प्रकट होती हैं; अपर नाद; अपर बीज और अपर बिन्दु। इन्हीं तीनों से क्रमशः ब्रह्मा; विष्णु और रुद्र उत्पन्न होते हैं। नाद; बीज और बिन्दु क्रमशः ज्ञान; इच्छा और क्रिया स्वरूप हैं। नाद परम ज्ञान है। बीज परम इच्छा है। बिन्दु परम क्रिया है। नाद; बीज; बिन्दु से ब्रह्मा; विष्णु; रुद्र और ये तीनों ही ज्ञान; इच्छा; क्रिया के रूप में स्फोटित होते हैं। सृष्टि का रथ अनवरत चल पड़ता है। चलता ही रहता है। नाथपंथ और तंत्रपंथ के निर्गुण शिव ही कबीर के निर्गुण राम हैं; या समकक्ष हैं। निर्गुण-सगुण; शिव-शक्ति; नाद-बिन्दु के रहस्य से भी न्यारा कबीर का राम निरंजन है  राम निरंजन न्यारा रे; अंजन सकल पसारा रे।


परम ज्योति स्वरूप सत्य निरंजन राम ही कबीर का साध्य है। साधना के मार्ग में अनेक ठौर हैं। अनेक रहस्यमय गुफाएँ हैं। आज्ञाचक्र में भँवर गुफा है। श्वास-प्रश्वास का निरंतर प्रवाह है। अनहद नाद की झीणी-झीणी ध्वनि है। बड़ा ही रोचक और अगम पथ है साधना का। नाथपंथ; जिसका कि कबीरदास पर गहरा प्रभाव है; कि साधना पद्धति हठयोग के अनुसार- महाकुण्डलिनी नामक एक महाशक्ति है; जो सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। जब यह महाशक्ति अपने अंश के साथ व्यक्ति में स्थित होती है; तो कुण्डलिनी कहलाती है। कुण्डलिनी और प्राण-शक्ति धारण करके ही जीव माता के गर्भ में प्रवेश करता है। जीव की तीन अवस्थाएँ हैं- जाग्रत; सुषुप्ति और स्वप्न। तीनों ही अवस्थाओं में कुण्डलिनी स्थिर; निष्क्रिय और निःश्चेष्ट रहती है। मानव शरीर की रचना इस रूप में भी सुन्दर है कि वह कुण्डलिनी जागरण के माध्यम से परम सत्य तक पहुँचाने में जीव का साधनधाम सिद्ध होता है। सिद्धों और नाथों ने और कबीर ने भी अपने अवधूत मार्ग से पिण्ड में ब्रह्माण्ड को देखा और पाया है। अपने साधना-चक्षुओं से उन्होंने देखा-पाया कि देह में स्थित मेरुदण्ड नीचे जाकर जहाँ वायु और उपस्थ में जाकर समाप्त होता है; वहाँ एक स्वयंभू लिंग है। यह लिंग त्रिकोणात्मक अग्निचक्र में स्थित है। अग्निचक्र में स्थित स्वयंभू लिंग को साढ़े तीन वलयों में लपेटकर सर्विणी की तरह कुण्डलिनी शक्ति स्थित शान्त है।


योगी; तपी; तपसी और सिद्ध अनुभव से कहते हैं कि यह शरीर (पिण्ड) ब्रह्माण्ड से ही बना है। अतः जो ब्रह्माण्ड में है; वह पिण्ड में भी है। जो पिण्ड में है, वह ब्रह्माण्ड में है। जो पिण्डे; सो ब्रह्माण्डे जानि; मानसरोवर करि असनानि। इस पिण्ड (देह) में छह चक्र हैं। गुदास्थान एवं जननेन्द्रिय के बीच मूलाधार चक्र है। इसमें चार पंखुड़ियाँ हैं। इसमें सूर्य निवास करता है। जननेन्द्रिय के मूल में स्वाधिष्ठान चक्र है; जिसमें छह कमल-पंखुड़ियाँ हैं। नाभि प्रदेश में मणिपूरक चक्र स्थित है; जिसमें दस पंखुड़ियाँ हैं। हृदय प्रदेश में अनाहदचक्र है; जिसमें बारह पंखुड़ियाँ है। कण्ठस्थान में विशुद्धाख्यचक्र स्थित है; जिसमें सोलह पंखुड़ियाँ हैं। दोनों भौहों के मध्य में आज्ञाचक्र या आकाशचक्र है; जिसमें केवल दो पंखुड़ियाँ हैं। इसके ऊपर मस्तिष्क प्रदेश में शीर्ष कमल है; जो सहस्रार कहलाता है; जिसमें सहस्र पंखुड़ियाँ। इसमें चन्द्रमा निवास करता है; जिसमें से अमृत झरता रहता है।


शिवसंहिता; गोरख सिद्धान्त संग्रह; हठयोग प्रदीपिका; कबीर ग्रंथावली एवं अनेक साधक-संतों की वाणियों के प्रमाण यह कहते हैं कि मेरुदण्ड में प्राणवायु को श्वास-प्रश्वास में प्रवाहित करने वाली अनेक नाड़ियाँ हैं। मानव शरीर में बहत्तर हजार नाड़ियाँ हैं। मेरुदण्ड के बाईं ओर इड़ा है। दाई और पिंगला है। दोनों के मध्य में सुषुम्ना है। इंगला और पिंगला के द्वारा प्राणवायु आती जाती रहती है। बाईं इंगला को चन्द्रनाड़ी और दाईं पिंगला को सूर्यनाड़ी भी कहते हैं। मध्य में स्थित सुषुम्ना के भीतर भी वज्रा; उसके भीतर चित्रिणी और उसके भी भीतर ब्रह्म नाड़ी है। कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होने पर सुषुम्ना के मध्य स्थित ब्रह्म नाड़ी से ही उर्ध्वमुखी होकर एक-एक चक्र को भेदती हुई आज्ञाचक्र में स्थित होती है। यही कबीर का त्रिवेणी स्नान है। इड़ा गंगा; पिंगला यमुना और सुषुम्ना सरस्वती है। आज्ञाचक्र में त्रिकुटी है। यही संगम है। त्रिवेणी है। अवधूत कबीर यहाँ अहोरात्र स्नान करता रहता है।


आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अपने कबीर नामक ग्रन्थ में अनेक पंथों; योगमार्गों; सिद्धमार्गों के आधार पर कुण्डलिनी जागरण; हठयोग और अनहद नाद की गंभीर व्याख्या और विवेचन किया है। कुण्डलिनी साधना द्वारा जाग्रत होकर उर्ध्वमुख होकर ऊपर की ओर उठती है; तो उससे स्फोट होता है; जिसे नाद कहते हैं। नाद से प्रकाश होता है। प्रकाश का ही व्यक्त रूप बिन्दु है। जो नाद अनाहत भाव से सारे ब्रह्माण्ड में व्याप्त है; वह ही व्यक्ति के भीतर प्रकाश रूप में नाद स्वरूप स्थित है। सांसारिक जीवन श्वास-प्रश्वास में बद्ध होकर माया-मोह ग्रसित जीवन जीता है। सामान्य स्थिति में व्यक्ति एक दिन-रात में 21,600 श्वास लेता-छोड़ता है। यह श्वास-प्रश्वास का कार्य इड़ा-पिंगला के मार्ग से निरंतर चलता रहता है। सुषुम्ना का मार्ग प्रायः बन्द रहता है। जब साधना द्वारा कुण्डलिनी जागरण होता है; तो सुषुम्ना का पथ उन्मुक्त होता है। साधक सिद्धासन में बैठकर भ्रूमध्य पर ध्यान लगाता है। श्वास क्रिया तीन प्रकार की होती है। श्वास छोड़ना रेचक क्रिया है। श्वास लेना पूरक क्रिया है। श्वास रोकना कुंभक क्रिया है। वास्तव क्रिया कुंभक ही है; जिसमें श्वास सम पर आकर स्थिर हो जाती है। श्वास की कुंभक क्रिया ही कुण्डलिनी शक्ति को निरंतर उर्ध्वमुख कर उर्ध्व यात्रा की ओर अग्रसर करती है। इसी स्थिति में प्राण स्थिर हो जाता है। संसार की सारी क्रियाओं और स्मृतियों से उसका सम्बन्ध टूट जाता है। प्राण शून्य पथ में स्थिर होकर पिण्ड में स्थित अनहद नाद को सुनने लगता है।


नाथ पंथियों की वाणी और कबीरवाणी के प्रमाण से कहा जा सकता है कि इस स्थिति में पहले तो शरीर के भीतर समुद्र गर्जन; मेघ गर्जन; भेरी और झाँझर आदि की-सी ध्वनि सुनाई देती है। फिर मांदल; शंख; घंटा की-सी मन्द-मन्द ध्वनि सुनाई देती है। अन्त में किंकिणी; बंशी; भ्रमर और वीणा के गुंजार-सी मधुर ध्वनि सुनाई देने लगती है। जिस प्रकार मकरन्द पान में मस्त भ्रमर अद्भुत सुख का अनुभव करता है; उसी प्रकार इस स्थिति में पहुँचा योगी नादासक्त चित्त में नाद में ही रम जाता है। ज्यों-ज्यों मन विशुद्ध और स्थिर होता जाता है; त्यों-त्यों इन ध्वनियों का सुनाई देना बन्द हो जाता है। चिदात्मक आत्मा अपने मूल स्वरूप में स्थिर होकर ब्रह्ममय हो जाता है। आज्ञाचक्र के ऊपर सहस्रार में त्रिकोणाकार परम शक्ति का स्थान है। यही चन्द्रमा का स्थान है। चन्द्रमा में से सदा अमृत झरता रहता है। खेचरी मुद्रा में योगी अपनी जिह्वा को उलटकर तालु देश में ले जाता है और चन्द्रमा से झरते अमृत का पान करता है। यही अमृत सोमरस है। इसको पीने वाला अमर हो जाता है। अनहद का नाद निरंतर गूँजता रहता है। इसी स्थिति का वर्णन कबीर करते हैं-


अवधू; गगन मंडल घर कीजै।

अमृत झरै; सदा सुख उपजै; बंकनालि रस पीजै।।

मूल बाँधि सर गगन समाना; सुषमन यों तन लागी।

काम-क्रोध दोउ भया पलीता; तहाँ जोगणी जागी।।

मनवा जाइ दरीबै बैठा; मगन भया रसि लागा।

कहै कबीर जिय संसा नाहीं; सबद अनाहद बागा।।


कुण्डलिनी शक्ति षट्चक्रों का भेदन कर ब्रह्मरंध्र तक पहुँच जाती है; तब मन पूर्णतः शान्त हो जाता है। विषयों से पराङमुख होकर अन्तर्मुख हो जाता है। यह दशा ही उन्मन या कबीर के शब्दों में केवलास या कैलाश है। इस स्थिति में ही अनाहत नाद या अनाहद शब्द सुनाई पड़ता है। यह अवस्था ही तुरीय अवस्था है। दसवें द्वार का खुलना है। उनमनि चढ़्या मगन रस पीवै गुरु गोरखनाथ अनुभव की वाणी कहते हैं- ऊँ पद्मासन पर बैठ जाओ और श्वास की ओर ध्यान लगाओ। मन को नष्टकर उस पर ताला लगा दो। तब गगन शिखर पर प्रकाश दीख पड़ेगा। यदि मन और श्वास को संयमित करके उन्मन की स्थिति प्राप्त कर लेता है, तो शरीर अनाहत नाद से गूँज उठता है।


गगने सुर पवने सुर तानि; धरती का पानी अंबर आनि।

ता जोगी की जुगति पिछानि; मन पवन ले उनमन आनि।

मन पवन ले उनमन रहे; तो काया गरजे गोरख कहे।।


सारे भक्तों ने श्वास-श्वास में हरि भजने की बात कही है। मन को एकाग्र करना एवं श्वास को नियंत्रित करना यह अजपाजाप की विधि है। प्रत्येक श्वास में ईश्वर के नाम का स्मरण इसकी पूरक क्रिया है। दादू कहते हैं-


दादू नीका नाँव है; हरि हिरदै न बिसारि।

मूरति मन माँहे बसैं; साँसे साँस सँभारि।।


श्वास-श्वास में हरि भजने पर एक स्थिति आती है कि परम सत्य आकर स्वयं साधक से भेंट करता है। सहजोबाई कहती है-


सहज श्वास तीरथ बहै; सहजो जो कोई न्याय।

पाप पुन्न दोनों छुटैं; हरिपन पहुँचे जाय।।


दास कबीर ने अनहद नाद के देश में पहुँचकर सहस्रार से भी ऊपर के लोक अष्टमचक्र सुरतिकमल में अपना निवास बनाया है। जहाँ से कभी वापस लौटना नहीं होता। जहाँ नाद भी पुनः शून्य में समा जाता है। अखिल ब्रह्माण्ड में परम अनहद नाद गूँजता रहता है।

🙏 जय दादा गुरुदेव 🙏 जय गुरुदेव🙏


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