क्या आप एक ऐसा व्यायाम खोज रहे हैं जो आपके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को सुधार सके? अगर हाँ, तो Guru Siyag Siddha Yoga आपके लिए एक बेहतरीन विकल्प है। यह एक ऐसा योग अभ्यास है जो सिर्फ 15 मिनट में किया जा सकता है, लेकिन इसके लाभ अपार हैं। इस लेख में, हम इस विशेष योग के विभिन्न पहलुओं पर चर्चा करेंगे, जिससे आप इसे अपने जीवन में आसानी से शामिल कर सकें।
Guru Siyag Siddha Yoga क्या है?Guru Siyag Siddha Yoga, प्राचीन भारतीय योग की एक आधुनिक विधि है, जिसे Guru Siyag जी ने प्रचलित किया है। यह योग साधना आपको शारीरिक, मानसिक और आत्मिक स्वास्थ्य प्रदान करने में सक्षम है। इसका अभ्यास बहुत ही सरल और प्रभावी है, जिसे कोई भी व्यक्ति अपने दैनिक जीवन में शामिल कर सकता है।
सिद्ध योग एक प्राचीन भारतीय योग प्रणाली है, जिसका उद्देश्य आत्मज्ञान और शारीरिक स्वास्थ्य को बढ़ावा देना है। यह योग विभिन्न आसनों, प्राणायाम और ध्यान तकनीकों का सम्मिलन है। इसका मूल उद्देश्य शरीर और मन के बीच संतुलन स्थापित करना है।
15 मिनट का व्यायाम का महत्वआज के व्यस्त जीवन में, 15 मिनट का व्यायाम आपको पूरे दिन तरोताज़ा और ऊर्जावान बनाए रख सकता है। Guru Siyag Siddha Yoga का यह 15 मिनट का अभ्यास आपके शरीर की मांसपेशियों को मजबूत करता है, मानसिक तनाव को कम करता है और आत्मिक शांति प्रदान करता है।
गुरु सियाग ने इस सिद्ध योग को सरल और प्रभावी तरीके से प्रस्तुत किया। उन्होंने योग को सभी के लिए सुलभ बनाने का प्रयास किया है। उनकी शिक्षाएं न केवल शारीरिक स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक विकास के लिए भी आवश्यक हैं।
15 मिनट का व्यायाम: एक संक्षिप्त विवरण
इस योग अभ्यास को कोई भी व्यक्ति अपने व्यस्त दिनचर्या में शामिल कर सकता है। इसके लिए आपको सिर्फ 15 मिनट का समय निकालना है। यह व्यायाम दिन की शुरुआत में, मध्य में या अंत में किया जा सकता है।
सबसे अच्छा 15 मिनट का व्यायाम: Guru Siyag Siddha Yoga नाम जप (5 मिनट) Guru Siyag Siddha Yoga का सबसे महत्वपूर्ण भाग नाम जप है नाम जप आपके मन को शांति प्रदान करता है और आत्मा को जागृत करता है। गुरु सियाग का दिव्य मंत्र
दुनिया के सभी धर्मों में कितनी भी विभिन्नताएं हों पर एक बात पर सभी एकमत हैं कि इस ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति एक दिव्य शब्द से हुई है। बाइबल भी कहती है कि- स्रष्टि के आरम्भ में शब्द था, शब्द ईश्वर के साथ था, शब्द ईश्वर था. वह शब्द ईश्वर के साथ आरम्भ हुआ था, हर वस्तु ‘उसके’ द्वारा बनाई गई थी और ‘उसके’ बिना कुछ भी बनाना सम्भव नहीं था जो कुछ भी बनाया गया था. ‘उसमें’ ही जीवन था वह जीवन ही इंसान का प्रकाश था।
इस बारे में श्री अरविंद ने पुस्तक ‘चेतना कि अपूर्व यात्रा’ में लिखा है कि “भारत वर्ष में एक गुह्य विद्या विद्यमान है जिसका आधार है नाद तथा चेतना-स्तरों के अनुरूप स्पन्दन-विधि के भिन्न-भिन्न तरीके। उदाहरणतः यदि हम ‘ओम’ ध्वनि का उच्चारण करें तब हमें स्पष्ट अनुभव होता है कि वह मूर्धा के केन्द्रों को घेर लेती है। इसके विपरीत ‘रं’ ध्वनि नाभिकेंद्र को स्पर्श करती है। हमारी चेतना के प्रत्येक केंद्र का एक लोकविशेष के साथ सीधा संबंध होने के कारण, कुछ ध्वनियों का जप करके मनुष्य उनके समरूप चेतना-स्तरों के साथ सम्बंध स्थापित कर सकता है। एक सम्पूर्ण अध्यात्मिक अनुशासन इसी तथ्य पर आश्रित है। वह ‘तांत्रिक’ कहलाता है क्यों कि तंत्र नामक शास्त्र से उसकी उत्पत्ति हुई है।
ये आधारभूत या मूल ध्वनियाँ, जिनमे संबंध स्थापित करने की शक्ति निहित रहती है, मंत्र कहलाती हैं। मात्र गुरु द्वारा ही शिष्य को उपदिष्ट ये मंत्र, सदा गोपनीय हैं। मंत्र बहुत तरह के होते हैं (चेतना के प्रत्येक स्तर की बहुत सी कोटियाँ हैं) और सर्वथा विपरीत लक्ष्यों के लिए इनका प्रयोग हो सकता है। कुछ विशिष्ट ध्वनियों के संमिश्रण द्वारा मनुष्य चेतना के निम्न स्तरों पर, बहुदा प्राण-स्तर पर, इनसे समरूप शक्तियों के साथ संपर्क जोड़कर, अनेक प्रकार की बड़ी ही विचित्र क्षमताएं प्राप्त कर सकता है – ऐसे मंत्र हैं जो घातक सिद्ध होते हैं (पांच मिनट के अंदर भयंकर वमन होने लगता है), ठीक-ठीक निशाना बनाकर वे शरीर के किसी भी भाग पर, किसी अंगविशेष पर प्रहार करते हैं, फिर रोग का उपशम करने वाले, आग लगा देने वाले, रक्षा करने वाले, मोहिनीशक्ति डाल वश में करने वाले भी मंत्र होते हैं।
इस तरह का जादू-टोना या यह स्पंद-रसायन एकमात्र निम्न-स्पन्दों के सचेतन प्रयोग का परिणाम होता है। किन्तु एक उच्चतर जादू जो कि होता है स्पन्दों के ही व्यवहार द्वारा सिद्ध, किन्तु चेतना के ऊर्ध्व स्तरों पर – काव्य, संगीत, वेदों तथा उपनिषदों के आध्यात्मिक मंत्र अथवा वे सब मंत्र जिनका कोई गुरु अपने शिष्य को, चेतना के किसी विशेष स्तर के साथ, किसी विशेष शक्ति अथवा दिव्य सत्ता के साथ, सीधा सम्बंध स्थापित करने के लिए सहायता करने के उद्देश्य से, उपदेश करता है। अनुभूति और सिद्धि कि शक्ति स्वयं इस ध्वनि में ही विद्यमान रहती है – यह ऐसी ध्वनि होती है जो हमें अंतदृष्टि प्रदान करती है।”
ध्यान (15 मिनट) नाम जप के बाद ध्यान का अभ्यास करें। ध्यान करने के लिए आप किसी भी आरामदायक स्थिति में बैठ सकते हैं। अपनी आँखें बंद करें और अपनी सांसों पर ध्यान केंद्रित करें। यह आपके मानसिक तनाव को कम करता है और आपके अंदर आत्मिक ऊर्जा का संचार करता है।
ध्यान का तरीका सर्वप्रथम आरामदायक स्थिति में किसी भी दिशा की ओर मुँह करके बैठें। दो मिनट तक सद्गुरुदेव श्री रामलाल जी सियाग के चित्र को खुली आँखों से ध्यानपूर्वक देखें। यदि आप किसी बीमारी, नशे या अन्य परेशानी से पीडत हैं, तो गुरुदेव से, उससे, मुक्ति दिलाने हेतु अन्तर्मन से करुण पुकार करें। मन ही मन १५ मिनट के लिये गुरुदेव से अपनी शरण में लेने हेतु प्रार्थना करें। उसके बाद आंखें बन्द करके आज्ञा चक्र (भोंहों के बीच) जह बिन्दी या तिलक लगाते हैं, वहाँ पर गुरुदेव के चित्र का स्मरण करें। इस दौरान मन ही मन गुरुदेव द्वारा दिए गए मंत्र का मानसिक जाप बिना जीभ या होठ हिलाये करें। (मंत्र प्राप्त करने के लिये लिंक “मंत्र कैसे प्राप्त करें” क्लिक करें) . ध्यान के दौरान शरीर को पूरी तरह से ढीला छोड दें, आँखें बन्द रखें, चित्र ध्यान में आये या न आये उसकी चिन्ता न करें। मन में आने वाले विचारों की चिन्ता न करते हुए मानसिक जाप करते रहें। ध्यान के दौरान कम्पन, झुकने, लेटने, रोने, हंसने, तेज रोशनी या रंग दिखाई देने या अन्य कोई आसन, बंध, मुद्रा या प्राणायाम की स्थिति बन सकती है, इससे घबरायें नहीं, इन्हें रोकने का प्रयास न करें। यह मातृशक्ति कुण्डलिनी शारीरिक रोगों को ठीक करने के लिये करवाती है। समय पूरा होने के बाद आप ध्यान की स्थिति से सामान्य स्थिति में आ जायेंगे। योगिक क्रियायें या अनुभूतियां न होने पर भी इसे बन्द न करें। रोजाना सुबह-शाम ध्यान करने से कुछ ही दिन बाद अनुभूतियां होना प्रारम्भ हो जायेंगी।
ध्यान करते समय मंत्र का मानसिक जाप करें तथा जब ध्यान न कर रहे हों तब भी खाते-पीते, उठते-बैठते, नहाते धोते, पढते-लिखते, कार्यालय आते जाते, गाडी चलाते अर्थात हर समय ज्यादा से ज्यादा उस मंत्र का मानसिक जाप करें। दैनिक अभ्यास में १५-१५ मिनट का ध्यान सुबह-शाम करना चाहिये।
Guru Siyag Siddha Yoga के फायदेमानसिक शांति : नाम जप और ध्यान आपके मन को शांति प्रदान करता है और मानसिक तनाव को कम करता है।शारीरिक स्वास्थ्य : योगासनों का अभ्यास आपके शरीर को तंदुरुस्त और लचीला बनाता है।आत्मिक जागृति : Guru Siyag Siddha Yoga आत्मिक ऊर्जा का संचार करता है और आत्मिक जागृति प्रदान करता है।ऊर्जा में वृद्धि : 15 मिनट का यह व्यायाम आपको पूरे दिन ऊर्जावान बनाए रखता है।कुण्डलिनी शक्ति परमपिता का अर्द्धनारीश्वर भाग शक्ति कहलाता है यह ईश्वर की पराशक्ति है (प्रबल लौकिक ऊर्जा शक्ति)। जिसे हम राधा, सीता, दुर्गा या काली आदि के नाम से पूजते हैं। इसे ही भारतीय योगदर्शन में कुण्डलिनी कहा गया है। यह दिव्य शक्ति मानव शरीर में मूलाधार में (रीढ की हड्डी का निचला हिस्सा) सुषुप्तावस्था में रहती है। यह रीढ की हड्डी के आखिरी हिस्से के चारों ओर साढे तीन आँटे लगाकर कुण्डली मारे सोए हुए सांप की तरह सोई रहती है। इसीलिए यह कुण्डलिनी कहलाती है।
जब कुण्डलिनी जाग्रत होती है तो यह सहस्त्रार में स्थित अपने स्वामी से मिलने के लिये ऊपर की ओर उठती है। जागृत कुण्डलिनी पर समर्थ सद्गुरू का पूर्ण नियंत्रण होता है, वे ही उसके वेग को अनुशासित एवं नियंत्रित करते हैं। गुरुकृपा रूपी शक्तिपात दीक्षा से कुण्डलिनी शक्ति जाग्रत होकर ६ चक्रों का भेदन करती हुई सहस्त्रार तक पहुँचती है। कुण्डलिनी द्वारा जो योग करवाया जाता है उससे मनुष्य के सभी अंग पूर्ण स्वस्थ हो जाते हैं। साधक का जो अंग बीमार या कमजोर होता है मात्र उसी की यौगिक क्रियायें ध्यानावस्था में होती हैं एवं कुण्डलिनी शक्ति उसी बीमार अंग का योग करवाकर उसे पूर्ण स्वस्थ कर देती है।
इससे मानव शरीर पूर्णतः रोगमुक्त हो जाता है तथा साधक ऊर्जा युक्त होकर आगे की आध्यात्मिक यात्रा हेतु तैयार हो जाता है। शरीर के रोग मुक्त होने के सिद्धयोग ध्यान के दौरान जो बाह्य लक्षण हैं उनमें यौगिक क्रियाऐं जैसे दायं-बायें हिलना, कम्पन, झुकना, लेटना, रोना, हंसना, सिर का तेजी से धूमना, ताली बजाना, हाथों एवं शरीर की अनियंत्रित गतियाँ, तेज रोशनी या रंग दिखाई देना या अन्य कोई आसन, बंध, मुद्रा या प्राणायाम की स्थिति आदि मुख्यतः होती हैं ।
मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर हमारे ऋषियों ने गहन शोध के बाद इस सिद्धान्त को स्वीकार किया कि जो ब्रह्माण्ड में है, वही सब कुछ पिण्ड (शरीर) में है। इस प्रकार मूलाधार चक्र से आज्ञा चक्र तक का जगत माया का और आज्ञा चक्र से लेकर सहस्त्रार तक का जगत परब्रह्म का है।
वैदिक ग्रन्थों में लिखा है कि मानव शरीर आत्मा का भौतिक घर मात्र है। आत्मा सात प्रकार के कोषों से ढकी हुई हैः- १- अन्नमय कोष (द्रव्य, भौतिक शरीर के रूप में जो भोजन करने से स्थिर रहता है), २- प्राणामय कोष (जीवन शक्ति), ३- मनोमय कोष (मस्तिष्क जो स्पष्टतः बुद्धि से भिन्न है), ४- विज्ञानमय कोष (बुद्धिमत्ता), ५- आनन्दमय कोष (आनन्द या अक्षय आनन्द जो शरीर या दिमाग से सम्बन्धित नहीं होता), ६- चित्मय कोष (आध्यात्मिक बुद्धिमत्ता) तथा ७- सत्मय कोष (अन्तिम अवस्था जो अनन्त के साथ मिल जाती है)। मनुष्य के आध्यात्मिक रूप से पूर्ण विकसित होने के लिये सातों कोषों का पूर्ण विकास होना अति आवश्यक है।
प्रथम चार कोष जो मानवता में चेतन हो चुके हैं शेष तीन आध्यात्मिक कोश जो मानवता में चेतन होना बाकी हैं उपरोक्त सातों काषों के पूर्ण विकास को ही ध्यान में रखकर महर्षि श्री अरविन्द ने भविष्यवाणी की है कि “आगामी मानव जाति दिव्य शरीर (देह) धारण करेगी”।
श्री अरविन्द ने अपनी फ्रैन्च सहयोगी शिष्या के साथ, जो माँ के नाम से जानी जाती थीं, अपनी ध्यान की अवस्थाओं के दौरान यह महसूस किया कि अन्तिम विकास केवल तभी हो सकता है जब लौकिक चेतना (जिसे उन्होंने कृष्ण की अधिमानसिक शक्ति कहा है) पृथ्वी पर अवतरित हो।
साधक की कुण्डलिनी चेतन होकर सहस्त्रार में लय हो जाती है, इसी को मोक्ष कहा गया है।
स्वत: होने वाली योगिक क्रियायेंकुण्डलिनी जागरण का प्रभाव आरम्भ करने वाला कभी-कभी स्वैच्छिक होने वाली योगिक क्रियाओं से यह सोचकर भयभीत हो जाता है कि या तो कुछ गलत हो गया है या फिर किसी अदृश्य शक्ति की पकड में आ गया है लेकिन यह भय निराधार है। वास्तव में यह यौगिक क्रियायें या शारीरिक हलचलें दिव्य शक्ति द्वारा निर्दिष्ट हैं और प्रत्येक साधक के लिये भिन्न-भिन्न होती हैं।
ऐसा इस कारण होता है कि इस समय दिव्य शक्ति जो गुरू सियाग की आध्यात्मिक शक्तियों के माध्यम से कार्य कर रही होती है वह यह भली भाँति जानती है कि साधक को शारीरिक एवं मानसिक रोगों से मुक्त करने के लिये क्या विशेष मुद्रायें आवश्यक हैं। यह क्रियायें कोई भी हानि नहीं पहुँचाती शरीर-शोधन के दौरान असाध्य रोगों सहित सभी तरह के शारीरिक एवं मानसिक रोगों से पूर्ण मुक्ति मिल जाती है यहां तक कि वंशानुगत रोग जैसे हीमोफिलिया से भी छुटकारा मिल जाता है।
सभी तरह के नशे छूट जाते हैं। साधक बढा हुआ अन्तर्ज्ञान, भौतिक जगत के बाहर अस्तित्व के विभिन्न स्तरों को अनुभव करना, अनिश्चित काल तक का भूत व भविष्य देख सकने की क्षमता आदि प्राप्त कर सकता है। आत्मसाक्षात्कार होने के पश्चात आगे चल कर साधक को सत्यता का भान हो जाता है जो उसे कर्मबन्धनों से मुक्त करता है और इस प्रकार कर्मबन्धनों के कट जाने से दुःखों का ही अन्त हो जाता है।
कुण्डलिनी के सहस्त्रार में पहुँचने पर साधक की आध्यात्मिक यात्रा पूर्ण हो जाती है। इस अवस्था पर पहुँचने पर साधक को स्वयं के ब्रह्म होने का पूर्ण एहसास हो जाता है इसे ही मोक्ष कहते हैं। फिर भी यदि कोई साधक इन क्रियाओं से अत्यधिक भयभीत है तो वह इन्हें रोकने हेतु गुरू सियाग से प्रार्थना कर सकता है प्रार्थना करने पर क्रियायें तत्काल रुक जायेंगी।
विश्व शान्ति रुकावटों का समाधान इस युग का मानव भौतिक विज्ञान से शान्ति चाहता है परन्तु विज्ञान ज्यों-ज्यों विकसित होता जा रहा है, वैसे-वैसे शान्ति दूर भाग रही है और अशान्ति तेज गति से बढती जा रही है। क्योंकि शान्ति का सम्बन्ध अन्तरात्मा से है, अतः विश्व में पूर्ण शान्ति मात्र वैदिक मनोविज्ञान के सिद्धान्तों पर ही स्थापित हो सकती है। अन्य कोई पथ है ही नहीं। भारतीय योग दर्शन में वर्णित “सिद्धयोग” से विश्व शान्ति के रास्ते की सभी रुकावटों का समाधान सम्भव है।
दार्शनिक पक्ष गुरु सियाग सिद्धयोग क्या है? सिद्धयोग, योग के दर्शन पर आधारित है जो कई हजार वर्ष पूर्व प्राचीन ऋषि मत्स्येन्द्रनाथ जी ने प्रतिपादित किया तथा एक अन्य ऋषि पातंजलि ने इसे लिपिबद्ध कर नियम बनाये जो ‘योगसूत्र‘ के नाम से जाने जाते हैं। पौराणिक कथा के अनुसार मत्स्येन्द्रनाथ जी पहले व्यक्ति थे जिन्होंने इस योग को हिमालय में कैलाश पर्वत पर निवास करने वाले शास्वत सर्वोच्च चेतना के साकार रूप भगवान शिव से सीखा था। ऋषि को, इस ज्ञान को मानवता के मोक्ष हेतु प्रदान करने के लिये कहा गया था। ज्ञान तथा विद्वता से युक्त यह योग गुरू शिष्य परम्परा में समय-समय पर दिया जाता रहा है।
यह योग (सिद्धयोग) नाथमत के योगियों की देन है इसमें सभी प्रकार के योग जैसे भक्तियोग, कर्मयोग, राजयोग, क्रियायोग, ज्ञानयोग, लययोग, भावयोग, हठयोग आदि सम्मिलित हैं, इसीलिए इसे पूर्ण योग या महायोग भी कहते हैं इससे साधक के त्रिविध ताप आदि दैहिक (फिजीकल) आदि भौतिक (मेन्टल) आदि दैविक (स्प्रीचुअल) नष्ट हो जाते हैं तथा साधक जीवनमुक्त हो जाता है। महर्षि अरविन्द ने इसे पार्थिव अमरत्व की संज्ञा दी है। पातंजलि योगदर्शन में साधनापाद के २१ वें श्लोक में योग के आठ अंगों यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का वर्णन है।
बौद्धिक प्रयास से इस युग में उनका पालन करना असम्भव है। परन्तु गुरू-शिष्य परम्परा में शक्तिपात-दीक्षा से कुण्डलिनी जागृत करने का सिद्धान्त है। सद्गुरुदेव साधक की शक्ति (कुण्डलिनी) को चेतन करते हैं। वह जागृत कुण्डलिनी साधक को उपर्युक्त अष्टांगयोग की सभी साधनाएं स्वयं अपने अधीन करवाती है। इस प्रकार जो योग होता है उसे सिद्धयोग कहते हैं। यह शक्तिपात केवल समर्थ सदगुरु की कृपा द्वारा ही प्राप्त होता है इसलिये इसे सिद्धयोग कहा जाता है जबकि अन्य सभी प्रकार के योग मानवीय प्रयास से होते हैं।
बीमारियों का योगिक उपचार पातंजलि ऋषि ने अपनी पुस्तक योग सूत्र में बीमारियों का वर्गीकरण तीन श्रेणियों में किया है १. शारीरिक (आदि दैहिक) २. मानसिक (आदि भौतिक) तथा ३. आध्यात्मिक (आदि दैविक)। मनुष्य की आध्यात्मिक बीमारियों के लिये आध्यात्मिक इलाज की आवश्यकता होती है। मनुष्य की आध्यात्मिक बीमारियों का आध्यात्मिक इलाज योग के नियमित अभ्यास द्वारा केवल आध्यात्मिक गुरू, जैसे गुरू सियाग की मदद द्वारा ही सम्भव हो सकता है। एक मात्र गुरू ही है जो शिष्य को उसके पूर्व जन्मों के कर्म बन्धनों को काटकर उसे, जीवन के सही उद्देश्य, आत्मसाक्षात्कार द्वारा बीमारियों तथा दुःखों से छुटकारा दिलाने में उसकी सहायता कर सकता है।
दूसरे शब्दों में कर्म का आध्यात्मिक नियम, पूर्व जन्म के कर्म इस जन्म की बीमारियों तथा दुःखों के कारण हैं जो मनुष्य को जन्म जन्मान्तर तक कभी समाप्त न होने वाले चक्र में बांधे रखते हैं, सिर्फ रोगों को दूर करने के उद्देश्य से इसे काम लेना इसके मुख्य उद्देश्य को ही छोड देना है क्योंकि यह तो साधक को उसके कर्मों के उन बन्धनों से मुक्त करता है जो निरन्तर चलने वाले जन्म-मृत्यु के चक्र में उसे बाँधकर रखते हैं।
प्राचीन भारतीय ऋषियों ने ध्यान के द्वारा जीवन के रहस्यों की गहराई तक छानबीन की और यह पाया कि बीमारियों का कारण केवल कीटाणुओं अथवा विषाणुओं के सम्फ में आना ही नहीं है बल्कि अधिकांश मनुष्यों में पीडा व सन्ताप का कारण पूर्व जन्म में उनके द्वारा किये गये कर्मों का फल भी है। प्रत्येक कर्म चाहे वह अच्छा हो या बुरा, उसका परिणाम भोगना पडता है, चाहे वह इसी जन्म में मिले या फिर आगामी जन्म में।
चूँकि प्रत्येक मनुष्य, जीवन तथा मृत्यु के कभी समाप्त न होने वाले चक्र में फँसा हुआ है, मनुष्य की बीमारियाँ व भोग तथा जीवन का उत्थान-पतन अनवरत रूप से चलता रहता है।
आधुनिक विज्ञान मृत्यु के बाद जीवन की निरन्तरता को स्वीकार नहीं करता। इसी कारण वह बीमारियों के भौतिक हल ढूँढता है और अन्ततः स्थायी चिकित्सा में असमर्थ रहता है। अगर विज्ञान एक बीमारी का हल खोजता है तो दूसरी अधिक जटिल बीमारियाँ मनुष्यों में कभी-कभी उत्पन्न हो जाती हैं। इसका कारण है, इस विश्वास से इनकार करना कि इस समस्या की जड मनुष्य के भौतिक जीवन से बहुत दूर की बात है।
बीमारी ठीक होना निरन्तर जाप एवं ध्यान के दौरान लगने वाली खेचरी मुद्रा में साधक की जीभ स्वतः उलटकर तालू से चिपक जाती है, जिसके कारण सहस्त्रार से निरन्तर टपकने वाला दिव्य रस (अमृत) साधक के शरीर में पहुचकर साधक की रोग प्रतिरोधक शक्ति को अद्भुत रूप से बढा देता है, जिससे साधक को असाध्य रोगों जैसे एड्स, कैन्सर, गठिया एवं अन्य प्राणघातक रोगों से पूर्ण मुक्ति मिल जाती है। महायोगी गोरखनाथ जी ने कहा है कि –
गगन मण्डल में ऊँधा-कुंआ, तहाँ अमृत का वासा।
सगुरा होइ सो भरि भरि पीव, निगुरा जाइ प्यासा।।
नशा मिटनानाम खुमारी अथवा दिव्य आनन्द
आज सम्पूर्ण विश्व में भयंकर तनाव व्याप्त है। अतः आज विश्व में मनोरोगियों की संख्या सर्वाधिक है, खासतौर से पश्चिमी जगत में। भौतिक विज्ञान के पास मानसिक तनाव शान्त करने की कोई कारगर विधि नहीं है। भैतिक विज्ञानी मात्र नशे के सहारे, मानव के दिमाग को शान्त करने का असफल प्रयास कर रहे हैं। दवाई का नशा उतरते ही तनाव पहले जैसा ही रहता है, तथा उससे सम्बन्धित रोग यथावत रहते हैं।
वैदिक मनोविज्ञान अर्थात अध्यात्म विज्ञान, मानसिक तनाव को शान्त करने की क्रियात्मक विधि बताता है। भौतिक विज्ञान की तरह भारतीय योगदर्शन भी “नशे” को पूर्ण उपचार मानता है, परन्तु वह “नशा” ईश्वर के नाम का होना चाहिये, किसी भौतिक पदार्थ का नहीं। हमारे सन्तों ने इसे हरि नाम की खुमारी कहा है। इस सम्बन्ध में संत सदगुरुदेव श्री नानक देव जी महाराज ने फरमाया हैः
भांग धतूरा नानका उतर जाय परभात।
“नाम-खुमारी” नानका चढी रहे दिन रात।।
यही बात संत कबीर दास जी ने कही हैः
“नाम-अमल” उतरै न भाई।
और अमल छिन-छिन चढ उतरें।
“नाम-अमल” दिन बढे सवायो।।
गीता में भगवान श्री कृष्ण ने “योगी” की स्थिति का वर्णन करते हुए, पांचवे अध्याय के २१ वें श्लोक में नाम खुमारी को “अक्षय-आनन्द” कहा है, तथा छठे अध्याय के १५,२१,२७ व २८वें श्लोक में इसे परमानन्द पराकाष्ठावाली शान्ति, इन्द्रीयातीत आनन्द, अति-उत्तम आनन्द तथा परमात्मा की प्राप्ति रूप अनन्त आनन्द कहा है। इस युग का मानव भौतिक सुख को ही आनन्द मानता है, यह भारी भूल है।
वृत्तियों में बदलाव वृत्तियाँ क्या हैं?
वैदिक धर्मशास्त्र ब्रह्म के द्वैतवाद को स्वीकार करते हैं जिसमें एक ओर वह आकार रहित, असीमित, शास्वत तथा अपरिवर्तनशील, अतिमानस चेतना है तो दूसरी ओर उसका चेतनायुक्त दृश्यमान तथा नित्य परिवर्तनशील भौतिक जगत है। यह चेतना भौतिक जगत के सभी सजीव तथा निर्जीव पदार्थों पर, जो तीन गुणों के मेल से बने हैं, अपना प्रभाव डालती है। सात्विक (प्रकाशित, पवित्र, बुद्धिमान व धनात्मक) रजस (आवेशयुक्त तथा ऊर्जावान) और तमस (ऋणात्मक, अंधकारमय, सुस्त तथा आलसी)।
सत्व संतुलन की शक्ति है। सत्व के गुण अच्छाई, अनुरूपता, प्रसन्नता तथा हल्कापन हैं।
राजस गति की शक्ति है। राजस के गुण संघर्ष तथा प्रयास, जोश या क्रोध की प्रबल भावना व कार्य हैं।
तमस निष्क्रियता तथा अविवेक की शक्ति है। तमस के गुण अस्पष्टता, अयोग्यता तथा आलस्य हैं।
मनुष्यों सहित सभी जीवधारियों में यह गुण पाये जाते हैं। फिर भी ऐसे विशेष स्वभाव का एक भी नहीं है जिसमें इन तीन लौकिक शक्तिओं में से मात्र एक ही हो। सब जगह सभी में यह तीनों ही गुण होते हैं लगातार तीनों ही गुण कम ज्यादा होते रहते हैं यह निरन्तर एक दूसरे पर प्रभावी होने के लिये प्रयत्नशील रहते हैं। यही वजह है कि कोई व्यक्ति सदैव अच्छा या बुरा, बुद्धिमान या मूर्ख, क्रियाशील या आलसी नहीं होता है।
जब किसी व्यक्ति में सतोगुणी वृत्ति प्रधान होती है तो अधिक चेतना की ओर उसे आगे बढाती है जिससे वह अतिमानसिक चेतना की ओर, जहाँ उसका उद्गम था, वापस लौट सके और अपने आपको कर्मबन्धनों से मुक्त कर सके। राजसिक या तामसिक वृत्ति प्रधान व्यक्ति सुख-दुःख, जीवन-मृत्यु के समाप्त न होने वाले चक्र में फँसता है। सिद्धयोग की साधना, सात्विक गुणों का उत्थान करके अन्ततः मोक्ष तक पहुँचाती है जो अन्तिम रूप से आध्यात्मिक मुक्ति है।
वृत्ति परिवर्तन व बुरी आदतों का छूटना इसी प्रकार निरन्तर नाम जप व ध्यान से वृत्ति परिवर्तन भी होता है। मनुष्य में मूलतः तीन वृत्तियाँ होती हैं। सतोगुणी, रजोगुणी एवं तमोगुणी। मनुष्य में जो वृत्ति प्रधान होती है उसी के अनुरूप उस का खानपान एवं व्यवहार होता है। निरन्तर नाम जप के कारण सबसे पहले तमोगुणी (तामसिक) वृत्तियाँ दबकर कमजोर पड जाती हैं बाकी दोनों वृत्तियाँ प्राकृतिक रूप से स्वतंत्र होने के कारण क्रमिक रूप से विकसित होती जाती हैं। कुछ दिनों में प्रकृति उन्हें इतना शक्तिशाली बना देती है कि फिर से तमोगुणी वृत्तियाँ पुनः स्थापित नहीं हो पाती हैं। अन्ततः मनुष्य की सतोगुणी प्रधानवृत्ति हो जाती है।
ज्यों-ज्यों मनुष्य की वृत्ति बदलती जाती है दबने वाली वृत्ति के सभी गुणधर्म स्वतः ही समाप्त होते जाते हैं। वृत्ति बदलने से उस वृत्ति के खानपान से मनुष्य को आन्तरिक घृणा हो जाती है। इसलिये बिना किसी कष्ट के सभी प्रकार की बुरी आदतें अपने आप छूट जाती हैं। इस संबंध में स्वामी विवेकानन्द जी ने अमेरिका में कहा था “कि मनुष्य उन वस्तुओं को नहीं छोडता वे वस्तुऐं उसे छोडकर चली जाती हैं।”
निष्कर्षआखिरकार, Guru Siyag Siddha Yoga केवल 15 मिनट में आपके जीवन को बदल सकता है। इसे अपने दिनचर्या में शामिल करें और देखिए कैसे आपके शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार होता है। नियमितता और संकल्प ही कुंजी हैं। इस योग के अभ्यास से न केवल आपका स्वास्थ्य बेहतर होगा, बल्कि आपके जीवन में सकारात्मकता और ऊर्जा भी आएगी।
Guru Siyag Siddha Yoga के माध्यम से 15 मिनट का यह व्यायाम आपके जीवन में सकारात्मक बदलाव ला सकता है। यह न केवल आपके शारीरिक स्वास्थ्य को सुधारता है, बल्कि मानसिक और आत्मिक शांति भी प्रदान करता है। इसे अपने दैनिक जीवन में शामिल करें और स्वस्थ और तंदुरुस्त जीवन का आनंद लें।
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Source: https://gurusiyag.org/sabse-accha-15-minute-ka-vyayam/